घर यूं ही तो नहीं बन जाता। हरेक  मन के किसी कोने में अपना घर और उसकी तस्वीर रखता है। इसकी पहली झलक जीवन के कई वसंत बाद नज़र आती है। मन का घर, विचारों का घर, अहसासों का घर, सपनों का घर, अपनों का घर---। कितनी मिठास है ना ---इस घर शब्द में। अपना दालान, अपनी छत जैसे अपने हिस्से का आसमां, अपने हिस्से की हवा। एक-एक ईंट हमें अपनी उम्र के घंटों और मिनटों जैसी प्रिय लगती है। हमारा पहला कदम घर कीओर नहीं अपने मन की ओर होता है। पहले कदम की खुशी 😃 का अहसास पूरे मन से करें, घर को जीएं, उसे संस्कारों से सिंचित करें ---। अकेले में सही घर से बतियायें, अपनी कहें उससे अपने मन की बात करें। आपसे कहूं कि ये घर आपके साथ जीता है, आपके दर्द को महसूसता है और आपकी खुशी में गुदगुदाता है। अब खुशियों का घर यदि शब्दों में परिभाषित किया जाए तब आपको वह सबसे प्रिय महाग्रंथ लगेगा....सहेजकर रखियेगा देखिये आपका घर मुस्कुरा रहा है।