मुगलकाल में बनी जलसंरचना
- आओ हाथ बढ़ाएं, जल विरासत को बचाएं
ये प्रकृति और उसके अंदाज...महसूस तो कीजिए...। ये अपनी विरासत खुद है और इसके नेह की अनगिनत धाराएं हैं...। जमीन के ऊपर और नीचे...। हम समझ पाए तो प्रकृति को दर्शन मानकर उसे महसूस करने की कोशिश करते हैं और यदि समझकर देख पाए तो (कुंडी भंडारे) जैसा आशीष पा जाते हैं... जी हां, प्रकृति की जल विरासत...। मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर बुरहानपुर के लिए कुंडी भंडारा गौरव का शीर्ष है। सोचिए तो सही कोई शहर जिसकी पहचान पानी और उसकी भूमिगत संरचना हो ...तो वो इस विश्व के साथ मानव सभ्यता के लिए भी एक जीवंत प्रेरणा का स्वतः उदाहरण हो जाता हैं। हमें इस गौरव का अहसास होना चाहिए कि हम वो हैं जो इस अदभुत और अकल्पनीय जलसंरचना कुंडी भंडारा के साक्षी हैं...। तकरीबन 400 साल पुरानी इस जलसंरचना में अब जल का बहाव कम होना चिंता बढ़ा रहा है। जल विरासत पर कैल्शियम कहर बनकर टूट रही है, स्वतः जल संचार के मार्ग इस संरचना के झीरे अब इस जिद्दी कैल्शियम-मैग्निशियम परतां के नीचे दम तोड़ने लगे हैं। यदि जलसंरचना में पानी का बहाव थम गया...तब यकीकन ये हमारी चेतना की हार होगी। ये वो पराजय होगी जिसे हमारी पीढ़ियां भी माफ नहीं करेंगी...। बेहतर है चैतन्य मन और विश्वास से हाथ आगे बढ़ाएं और प्रत्येक अपनी जिम्मेदारी मानकर इस अद्वितीय जलसंरचना को बचाने, सहेजने के लिए कार्य करने का संकल्प लें...।
1615 ईसवीं का उपहार- पहली ईरान में, दूसरी भारत में
- मुगल बादशाह अकबर के नौ रत्नों में एक अब्दुल रहीम खानखाना को इस संरचना के बारे 1612 ईसवीं में पता चला और उन्होंने 1615 में यहां एक जलसंरचना का निर्माण करवाया, चूना और पत्थरों से सुदृढ़ सुरंग बनाई गई। सतपुड़ा की पहाड़ियों का जल रिसकर इस संरचना में और वहां से ये नगर तक पहुंचता रहा है। ..जैसा कि अब तक सूचनाएं मिल पाईं हैं इसका निर्माण ईरान के कारीगरों ने किया। ये दुनिया की दूसरी और भारत की इकलौती भूमिगत जलसंरचना है...। विश्व में पहली भूमिगत जलसंरचना ईरान में थी, वो सूखकर खत्म हो चुकी है।
कम होता जल रिसाव
- इसकी विशेषता ये है भूमिगत जलसंरचना में कुल 101 कुंडियां थीं, लेकिन उनमें से कुछ धंस चुकी हैं। वर्तमान में इससे शहर के उपनगर लालबाग की आबादी को जल आपूर्ति की जा रही है, हालांकि अब इसमें कैल्शियम की परतें बढ़ने से पानी का रिसाव कम होता जा रहा है जो चिंता का गहरा सबब है और इसे सहेजना अहम और जिम्मेदार चुनौती है।
स्वतः तैयार हुईं ये जिद्दी परतें
- सालों से पानी के प्रवाह के कारण यहां कैल्शियम और मैग्निशियम की परतें स्वतः ही तैयार हुई हैं...हालांकि इन परतों के बीच से बहता हुआ पानी बेहद सुंदर प्रतीत होता है लेकिन यहां इसी के कारण विरासत मुश्किल के दायरे में आ खड़ी हुई है।
परतें हटेंगी तभी जल प्रवाह बढ़ेगा
- 1999-02 में उत्तरप्रदेश जलबोर्ड की टीम ने यहां सर्वे किया था और उनकी रिपोर्ट के अनुसार जब तक यहां से ये परतें नहीं हटेंगी तब तक जलस्तर और उसका प्रवाह बढ़ेगा। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि कैल्शियम-मैग्निशियम की परतों को नहीं निकाला जा सकता...लेकिन अब भी इस दिशा में प्रयास जारी हैं...उम्मीद है कोई हल खोजा जाएगा जो जल को उसकी उन्मुक्त राह दोबारा सके।
यूनेस्को तक दस्तक
- इसे विश्व की धरोहर में शामिल करने के प्रयासों के तहत 2007 में यूनेस्को की टीम बुरहानपुर पहुंची थी लेकिन कुछ छोटी-मोटी खामियों के कारण तब विश्व धरोहर में ये शामिल नहीं की जा सकी।
80फीट जमीन के नीचे पानी का राज
- जो इस संरचना में गहरे उतर चुका है उसका अपना अनुभव है। ऐसे ही कुछ लोगों से जब बात हुई तो उनका कहना था कि नीचे पहुंचकर लगता है कि आप एक ऐसी विरासत से रुबरु हो रहे हैं जो हमें जमीन के उपर कभी नजर नहीं आएगी...यहां प्रकृति ने अपना साम्राज्य पानी को सौंप रखा है। जमीन से लगभग 80 फीट की गहराई में उतरने के लिए कुंडियों की खोह जैसी गुफा के रास्ते दाखिल होना पड़ता है और वहां से पानी की जल संरचना नजर आती है। यहां के पानी की वाकायदा जांच भी करवाई गई हैं उनसे ये बात सामने आई है कि इसका पानी मिनरल वाटर से भी अधिक शुद्व है।
प्रतिवर्ष हों...जल महासम्मेलन
- ये केवल बुरहानपुर नहीं बल्कि देश और दुनिया की विरासत है। चिंता और चुनौती कैल्शियम और मैग्निशियम की परतों के तौर पर मुश्किल होती जा रही है, झीरियों का दम घुट रहा है। इसे बचाने के लिए मिलकर चलना होगा। हमारा जज्बा इसे पीढ़ियों तक जीवित रख सकता है। इसे सहेजने और इसकी बेहतर राह के लिए यहां प्रतिवर्ष जल महासम्मेलन होना चाहिए। जिसमें देश और दुनिया के जलविद् और जमीनी पानी पर कार्य कर रहे लोगों को शामिल होना चाहिए ताकि इस दिशा में एक समग्र अभियान जमीनी तौर पर गति पा सके, हालांकि जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधि यहां बेहतर करने का प्रयास समय-समय पर करते रहे हैं। लगभग 17 वर्ष पहले यहां के पूर्व पार्षद नफीस मंशा खान और उनकी टीम ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया था जिससे बंद हो चुके पांच कुएं और झीरों को नया जीवन मिला था लेकिन इतना ही काफी नहीं है इसके लिए राज्य, केंद्र सरकारों के अलावा जल और भूजल के जानकारों को भी आगे आना होगा।
(सभी फोटोग्राफ- मुन्ना पठान, खंडवा, मप्र)
2 Comments
संदीप जी , बहुत ही दुर्लभ जानकारी है पर गौरवान्वित करने वाली बात है | विरासत को समर्पित मैंने वृतचित्रों में बावडियों और कुँओं इत्यादि के बारे में देखा है | सच है पोथियाँ पढ़ -पढ़ कर जो आजकल के इंजिनियर ना कर सके वो किसी जमाने के अनपढ़ कारीगर कर देते थे | आज तो जनसंख्या विस्फोट और लोगों की लापरवाही से धरती पर जलसंकट बना हुआ है | भले , उन दिनों इतनी सहूलियते नहीं थी पर फिर भी पुराने लोग जल के महत्व को बखूबी समझते थे और इसी दूरदर्शिता के चलते उन्होंने कुण्डी . बावड़ी इत्यादि बनवाये | भूमिगत जलसंरचना में उन्होंने अपनी मेधा का भरपूर इस्तेमाल किया और भावी पीढ़ियों को भी इस मत्वपूर्ण विषय पर रास्ता दिखाया | दुःख होता है कि भारत में विरासतें तब सहेजने की प्रक्रिया शुरू होती है जब वे जमींदोज होने को तैयार बैठी होती हैं | सरकार को ऐसे उपक्रमों को तेजी से निपटाना चाहिए जिससे ऐसी दुर्लभ विरासतें संरक्षित की जा सकें और आजकल की परियोजनाओं में ऐसे प्रयासों को प्रमुझता से जगह मिले | बहुत बहुत आभार इस लेख के लिए |
ReplyDeleteरेणु जी बहुत ही गहरी टिप्पणी है...। सच पानी ऐसा विषय है जिसे लेकर संजीदा होना होगा...। आभार आपका...।.
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