आने वाला कल कैसा होगा कोई नहीं जानता लेकिन ये सभी समझ गए हैं कि वह बहुत ही चुनौतीपूर्ण होने वाला है, सोचिएगा कि इस दौर के बच्चे जब कल पूछेंगे हमारे दौर के विषय में तो हमारे उन्हें दिखाने के लिए क्या है...कोरोना जैसी महामारी, नदी में तैरते शव, नदी की रेत में गाढ़ दिए गए अपनों के ही शव, ऑक्सीजन की कमी में हांफते लोग, दवाओं की चिंता, बिलखती तस्वीरें, जलती चिताएं, अस्पताल के बाहर कतारें, घरों में कैद हम, वैश्विक अस्थिरता, गरीबी से नीचे नर्क ढोते परिवार, अपराधों की भरमार, चीखते चैनलों की वीडियो क्लिप, भूकंप, तूफान, बेरोजगारी, दम तोड़ती योग्यताएं, सूखते कंठ, पानी का कारोबार, परेशान भीड़ पर ठहाके लगाता बाजार, दहकते हुए जंगल, ठंड में टूटते ग्लेशियर, फटते बादलों से निकला प्रकृति का क्रोध, घटते पक्षी, बढ़ता तापमान, प्रदूषित वायु, गगनचुंभी इमारतें, घुटते सपने और न जाने कितना है जो यहां लिखा जा सकता है।
क्या आप नकार पाएंगे इस सच को। क्या आप जवाब दे पाएंगे अपने बच्चों के प्रश्नों की कतार का। दरअसल हमारे पास कुछ है भी नहीं, जो है वह बहुत थोड़ा है यदि हम कहें कि हमने विकास किया हम हाईटेक हो गए, यदि हम कहें कि हमने चिट्ठियों के युग से आज डिजिटल युग पर आ पहुंचे हैं, यदि हम कहें कि हमने दुनिया को करीब लाने का कार्य किया है, लेकिन ये हममें से हरेक व्यक्ति जानता है कि हमारे इन वादों ने हमें कितना जीवन दिया है और कितनी जीवन की उम्मीद छीनी है, रिश्तों में खारापन पैदा किया है, जीवन में सूखा भरा है, एकांकीपन का जहर घोला है। यदि हम कहें कि हमने विकास किया तब संभवत बच्चों का सवाल होगा कि फिर कोरोना से हार क्यों गए, क्यों समय से उसका इलाज नहीं खोज पाए...आप अनुत्तरित हो जाएंगे। आप यदि कहेंगे कि हम डिजिटल के युग में आ पहुंचे तब बच्चे कहेंगे कि फिर पारिवारिक दूरिया क्यों बढ़ी। यदि आप कहेंगे कि हमने दुनिया को करीब लाने का कार्य किया तब बच्चे पूछेंगे कि उस आभासी दुनिया की करीबी किस काम की जब आप हर कदम हार गए, जब आप एक दूसरे से मिले नहीं दूरियां बढ़ गईं, आप केवल आभासी दुनिया में जीते रहे, खुश होते, रिश्ते और मित्रता मजबूत करते रहे। बहुत से सवाल होंगे और बेहद तीखे होंगे, कैसे करोगे सामना उनका, वे पूछेंगे क्योंकि अगली पीढ़ी के सवाल और पिछले पीढ़ी के जवाबों का आमना सामना अवश्य होता है, उस समय हम केवल लज्जित होंगे क्योंकि वाकई हमने एक अच्छी प्रकृति, एक अच्छा विकास, एक भरोसे वाला समाज, एक स्वस्थ्य उम्मीद वाला जीवन नहीं बुना, हम बाजार के अनुसार सबकुछ बुनते गए, वह हमारे घर के बैडरुम से लेकर रसोई तक में दाखिल हो गया और हम उसका अनुसरण सहर्ष स्वीकार करते रहे, आखिर हुआ ये कि बाजार क्रूर होता चला गया उसने आपको हर तरह से अवशोषित करना आरंभ कर दिया, आप हारने लगे लेकिन फिर भी आप उसके पीछे चलते रहे क्योंकि आप अभ्यस्त हो चुके थे, आप अपनी राह बनाना भूल चुके थे, आप प्रकृति से कोसों दूर जा चुके थे ऐसे में ये सब तो होना ही था....बहरहाल चलिए इंतजार करते हैं कि आने वाले साल और समय हम इन संकटों से सीखते हैं और सुधार की ओर दु्रतगति से अग्रसर होते हैं या फिर यही चाल और यही ढाल हमें अपनानी है, ये तो समय बताएगा...लेकिन तैयार रहिये आज आपका तरकश खाली है क्योंकि आपकी चेतना भी गिरवी रखी ली गई है, अब केवल धुंधली राह है और उस पर चलने का आपका हुनर जो बाजार तय कर रहा है...देखते जाईये आगे आगे होता है क्या...। लगता है उस अहम समय में हम शर्मसार होंगे क्योंकि हमारे हाथ रीते हैं...और हमें सुधार में एकजुट होना नहीं आता, हमें बेहतर चुनना नहीं आता, हमें सच को स्वीकार करना भी नहीं आता। दरअसल हम अपने ही जाल में फंस गए हैं, हम अपने ही जीवन को जाल की तरह बुनते रहे और अब हम उसमें उलझन सी महसूस करने लगे हैं।
6 Comments
बहुत ही सार्थक और हृदय स्पर्शी आलेख,सच कहा आपने हम अपने बच्चों को क्या बताएंगे,क्या दिखाएंगे जब हमनें कुछ अच्छा ,नया किया ही नहीं होगा ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी...सवाल बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब नहीं हैं, बस हम जीते जा रहे हैं बिना शर्तों के, बिना जवाब के सवालों का बोझ लेकर।
ReplyDeleteदरअसल हम अपने ही जाल में फंस गए हैं, हम अपने ही जीवन को जाल की तरह बुनते रहे और अब हम उसमें उलझन सी महसूस करने लगे हैं। बिल्कुल सही कहा संदिप भाई।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteसच है, हमारे हाथ रीते हैं।
ReplyDeleteजी यही एक बहुत सख्त सच्चाई है और इसे स्वीकार कर लेना ही अच्छा है। मिलकर उठने का समय आ गया, जागने का समय आ गया। हर व्यक्ति का अपने स्तर पर कर्म करने का समय आ गया है।
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