उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर देखिए...जिंदगी कुछ और दिखलाएगी...कुछ और बहुत खास जिसे हम कभी भी इस भौतिकता से भरी तंगहाल और कायदों में लिपटी जिंदगी में महसूस नहीं कर पाए होंगे।
लगता होगा हम सभी को कि हम कहीं बंध से गए हैं, कौन से तार हैं ये जिन्होंने हमें अपने में भींच रखा है और किसने बुने हैं यह तार...! बारिश होती है और मन भी कहीं न कहीं भीगने को, नहाने को, बूंदों और उस रसभरे मौसम से आंखें मिलाने को करता ही होगा लेकिन हमारे कायदों की चुभन ने हमें छोटी सी बालकनी के कोने में चिपटा रहने वाला एक खिसयाया सा इंसान बना दिया है, हम अंदर ही अंदर कठिन शब्द से हो गए हैं जिन्हें याद करना बच्चों के लिए बचपन में और बड़ा हो जाने के बाद हमारे स्वयं के लिए भी मुश्किल है।
कौन जानें बूंदों का यह काफिला आने वाले सालों में हमारे दयार से निकले ही ना....कौन जाने कल, कौन जाने क्या हो जब बादल सूख जाएं और केवल गर्म हवाओं को और सूरज की तपिश को रोकने वाले किसी पंडाल की तरह ही उपयोग में आएं! कौन जाने....फिर काहे इतना सोच रहे हैं, क्यों खामोश हैं।
मन मचल रहा है तो निकल जाईये ना, पड़ोसी कुछ नहीं कहेगा, कुछ नहीं सोचेगा और सोचे तो सोचे...वह उलझा है तो उलझा रहे...हम तो मुक्त हो जाएं, हां संभव है कि धीरे-धीरे ही सही वह यह अवश्य सोचने लगे कि देखो वह उम्रदराज होकर भी बारिश में भीग रहे हैं, हम छत पर तो चल ही सकते हैं।
खैर मैं तो जिंदगी को इसी तरह जान पाया हूं कि यदि आप बेकार की परवाह करते हैं और अपने को भींचते जाते हैं तो आप एक ऐसे जंगल में सफर कर रहे होते हैं जहां पगडंडी तो है लेकिन उसे संकरा बना दिया गया है ताकि कोई निकल ना पाए लेकिन यदि आप निकलेंगे तो वह संकरा रास्ता भी मंजिल का चेहरा दिखाने लगेगा और जंगल बदनाम होने से बच जाएगा।
बहरहाल सोचिएगा कि पहले खूब बारिश, फिर घटती बारिश, फिर खंड बारिश और धीरे धीरे सबकुछ सिमटता जा रहा है, मत रोकिए और मत सोचिए क्योंकि शायद यह बारिश, यह आनंद, बूंदों की छुअन का यह अहसास आने वाली पीढ़ियों के हिस्से बहुत कम हो या ना हो।
बीते दिनों में सोशल मीडिया पर एक उम्र दराज कपल का बारिश में एक पुराने गाने पर भीगते हुए वीडियो खूब वायरल हुआ, हम सभी ने देखा भी और सराहा भी लेकिन हम फिर हार गए, अपने आप से, दिखावे वाली जिंदगी से, उलझनों से, अपनी वैचारिक कमजोरियों से...।
दरअसल हम जीना तो चाहते हैं लेकिन हमने दिखावे वाले जो कायदों का जंजाल बना रखा है उससे मुक्त होना हमारे लिए बेहद मुश्किल है, हारिये मत क्योंकि प्रकृति हमें जीतता देखकर खुशी से झूम उठती है....।
संदीप कुमार शर्मा
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