हम भी कितने गजब प्राणी हैं कि यह जानते हुए भी कि हमारा गुजारा इस प्रकृति के बिना नहीं है फिर भी तमाम तरह की नौटंकी करते हुए हम अपना जीवन जी ही लेते हैं, बहानों का हमारे पास अंबार है, हमें अपने आप को धोखा देना सबसे अधिक आता है, जबकि सबसे कठिन यही होता है, बहरहाल हमें जब प्रकृति में सौदर्य देखना है तो हम आंखें मूंदकर उसमें खो जाने का अद्भुत नाटक करते हैं.
तपते शरीर पर बारिश की बूंदों के गिरते ही हम प्रकृति को हजार धन्यवाद देते हुए आसमान की ओर देखते हैं, इसी तरह नदियों मेंं स्वच्छ ठिकानों पर हम पूरे मनायोग से स्नान करते हैं और अपने पापों के प्रायश्चित की प्रार्थना करते हैं लेकिन उसी नदी के दूषित हिस्से को देखते ही मुंह फेर लेते हैं...हैं ना हम गजब के...।
जब आवश्यकता न हो तो हमें प्रकृति के विषय पर नीरसता नजर आती है, हमें उस पर बात करना भी समय की बर्बादी लगने लगती है और हम आंख कान बंद कर उसकी ओर पीठ कर लेते हैं लेकिन जब बारिश नहीं होती, तालाब और कुएं खाली रह जाते हैं और लगता है कि अब यदि बारिश नहीं हुई तो प्यास कैसे बुझाएंगे....हम फिर प्रकृति के प्रति निश्छिल भाव से समर्पित होकर उसकी आराधना में जुट जाते हैं, यदि कुछ ही दिन बारिश सतत हो जाए तो हम उसी नदी को कोसने लगते हैं जिस नदी के हिस्से बैठकर हम स्नान करते समय अपने पाप धोने की गुहार लगाकर आए थे...।
कैसा सबकुछ गजब है न कि यह हमारा नेचर हो गया है कि हम नेचर को केवल अपने अनुसार ढालना और उसका फायदा उठाना चाहते हैं, लेकिन जब हमें उस पर कार्य करना चाहिए तब हम आंखें मूंदकर अपने अपने आशियानों में कैद हो जाते हैं। ये तो और भी गजब है कि नदियों के आसपास का व्यू दिखाकर हमें मकान बनाने का सपना दिखाया जाता है और हम वहां बस जाते हैं लेकिन जब नदी का प्रवाह आता है तब हम उसे देख खौफ के कारण नदी को दोषी ठहराने लगते हैं...तो भईया कौन किसके हिस्से घुसा है सोचिएगा।
नदी, जंगल, वन्य जीव या प्रकृति का कोई भी तत्व हमें अपने स्वतः नुकसान नहीं पहुंचाता, वह तो हम उसके रास्ते में स्वतः आते हैं और बर्बाद होने पर चीखने लगते हैं। सोचता हूं अदना सा आदमी कितने फरेब पाल लेता है अपने मन में और हर बार हारता है लेकिन हर बार छलता है...?
सीखिएगा क्योंकि प्रकृति का मूल समरसता है और वह गतिमान है लेकिन हम यदि मुगालते पहन उसकी राह में आएंगे तो तिनके की तरह हर बार उछाल दिए जाएंगे...बेहतर है प्रकृति की हद नापने की सनक को भूल कर अपनी हद दोबारा खोजें और उस पर कार्य करना आरंभ करें...
संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन, पत्रिका
पर्यावरणविद
2 Comments
सटीक
ReplyDeleteआभार सुशील जी
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