जी हां तिनकों का अपना समाज और अपना सौंदर्य होता है, सांझ को जब सूर्य धरती के दूसरे छोर पर सुस्ताने पैर लटकाए मुंडेर पर बैठता है तब वो तिनकों से भी बतियाता है, उनकी कुशलक्षेम पूछता है। सांझ से बतियाते तिनके देखे और सुने हैं तुमने... मैंने सुना है... जाते सूर्य को ऊंची घास के सिर पर बैठ देखते हैं...। तिनकों का समाज पैरों तले रौंदा जाता है लेकिन चीखता नहीं है, शोर भी नहीं मचाता, अलबत्ता दर्द से कराहता अवश्य है। सुना है तिनके अपना समाज नए तरीकें से गढ़ने की जिद पर आमादा हैं वे अब अपना कद भी चाहते हैं और सम्मान भी...। हालांकि कुछ उम्रदराज़ तिनके अब भी चाहते हैं कि तिनके अपने क्रोध को आत्मस्वाभिमान पर हावी न होने दें...लेकिन युवा तिनके चाहते हैं जूतों वाले समाज भी नए सिरे से सोचना शुरू कर दें...वे बस इतना चाहते हैं तिनके भी मानवीय दायरे में लाए जाएं...।
6 Comments
अति तार्किक एवं भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteजी आभार आपका...
Deleteसारगर्भित प्रश्न तिनकों से जोड़कर उठाया है आपने..अनोखी सोच के साथ सुन्दर सृजन..
ReplyDeleteजी बहुत आभार जिज्ञासा जी...।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 15 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत आभार यशोदा जी...।
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