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मां कैसे छू लिया करती थी नब्ज


 

मैं नहीं जानता कि जब हम बच्चे थे तब मां कैसे देख लिया करती थी हमारी हाथ की नब्ज में बुखार और उसकी हरारत को। कौन जाने क्या देखती थी, क्या महसूस करती रही और हमारी कौन सी नब्ज को छू लिया करती थी कि हमें ये अहसास तत्काल हो जाया करता था कि हां अब हम ठीक हो जाएंगे क्योंकि मां हर बुखार में कह देती थी कि थोड़ी सी हरारत है, ठीक हो जाएगी, चिंता मत करो। वो अपने हाथ की ऊंगलियों को हमारी कलाई पर हमेशा ही वैसे ही रखती जैसे डॉक्टर देखा करते थे। हम हमेशा पूछते थे कि मां तुम डॉक्टर हो जो हमारी नब्ज वैसे ही देखती हो, हम जानते थे कि हमारी मां बिलकुल पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन उसने न जाने कहां से वो नब्ज को महसूस करना सीख लिया...शायद वो मां है इसलिए संभव हो पाया। एक दिन पूछ लिया यूं ही कि ये कैसे कर लेती हो, मां ने कहा कि समझना कौन सा मुश्किल है नब्ज कैसे चल रही है यही तो देखना है वह मुझे आता है, हां लेकिन सीखा कहां से इस पर वह हंसते हुए बोलती कि ठीक हो जाएगा जल्द...बस बात यहीं समाप्त हो जाया करती थी। अब तो मां बहुत उम्रदराज हो चुकी है, सोचता हूं कि मां कितनी गहरी है कि उसके पास सबकुछ है और सबसे बड़ी ताकत उसके प्रेम और विश्वास की है। 

एक और वाकया एक दिन अचानक मेरी तबीयत अधिक खराब हो गई, मां ने नब्ज देखी उसे लगा जैसे कुछ ठीक नहीं है उन्होंने आस पड़ोस में आवाज लगाई और देखा कि कुछ ही देर में घर में काफी लोग आ गए, उसके बाद पिता के नौकरी से लौटने तक उन पड़ोसियों ने ही सब कुछ संभाला और मां को ढांढस बंधाते रहे...सोचियेगा कि वह समय कैसा था जब एक मां जो अक्षर ज्ञान से बेखबर होने के बाद भी नब्ज पढ़ लिया करती थी साथ ही हमें भी और कैसे जबरदस्त रिश्ते उसने बुने कि एक आवाज पर पड़ोसी दौड़े चले आते थे, लेकिन आज क्या हो गया है और कैसे हो गया है, सबकुछ वह पुराना बदल कैसे गया। 

समझने का विषय तो है क्योंकि ऐसे ही हम इसे नकार नहीं सकते, क्या हमारी शिक्षा दोषी है, क्या हमारे स्वार्थ प्रबल हो गए हैं, क्या हममें से ही बहुत ये महत्वकांक्षा पाल बैठे कि हमें केवल अपनी सुननी है या फिर हमें अपने बुजुर्गों की दखलंदाजी पसंद नहीं आती। कारण जो भी मान लिया जाए लेकिन हम वह तासीर अपने अंदर नहीं रखते जो मां रखती है, जो उसके हाथ में थी, उसकी समझ में थी, उसके रिश्तों में थी, उसके भरोसे में थी। हम बेशक बहुत अधिक शिक्षित हो गए लेकिन कहीं न कहीं हममें एक गुरूर भी आकार लेता गया कि हमसे श्रेष्ठ कोई नहीं है, हम ही ताकतवर हैं और हमसे आगे हम किसी को होने नहीं देगे जबकि हकीकत ये है कि समय करवट लेना भी सिखाता है क्योंकि वो खुद करवट लेता है, इस दुनिया में धूप है तो छांव भी है, दिन है तो रात भी है और कुछ रातें अमावस की तरह लंबी होती हैं, उन रातों को पार करने के लिए बहुत गहरे संबल की आवश्यकता होती है और भी सच है कि ऐसी रात हरेक के जीवन का हिस्सा होती हैं। वह गहराई, धैर्य, सुनने की क्षमता और शांत सा व्यक्तित्व क्या आज के दौर के बच्चों में है, क्या हम अपने बच्चों में गहराई, धैर्य, मंथन और अपनापन सींच रहे हैं। ये कोरोना काल उदाहरण पेश कर रहा है क्योंकि यदि हम बहुत अधिक शिक्षित हैं तो हम अंदर से गुंथे हुए नहीं हैं यदि गुंथे हुए हों तो हमें मुसीबत के आते ही विचलित नहीं होना है लेकिन मैं देख रहा हूं इस दौर में बहुत जल्द हम विचलित हो रहे हैं, आपा खो रहे हैं, हम अकेले रहना सीख गए हैं इसलिए हम अकेलेपन में जीते जीते जल्द भयभीत होना सीख गए हैं हम डरने लगे हैं अपने साथ होने वाले किसी भी अहित की आशंका के अहसास से भी। सोचिएगा मेरी या आपकी मां या उस दौर के लोग क्या मुसीबत को भांपते नहीं थे, भांप लेते थे लेकिन वे डरते नहीं थे, वे उसके समाधान पर विचार करते थे। उन्हें और अपने आप को हम एक साथ रखकर देखेंगे तब हमें यकीन होगा कि शिक्षित होकर भी उथले से रह गए। हमें उनके वे सबक दोबारा याद करने होंगे जो हमने देखे हैं, उनसे सीखे हैं। शिक्षित होना जरुरी है लेकिन यदि शिक्षा आपको धैर्य और गहरा नहीं बना पाई तब यकीन मानिये कि आपकी शिक्षा अर्थहीन है, बेशक वह आपको सफल कर जाएगी लेकिन आप उस सफलता के शिखर पर अकेले ही होंगे। देख रहा हूं कि जो परिवार अपने माता-पिता को बहुत गहराई से समझते हैं वे अपने बच्चों में उसी गहराई का संचार करते हैं। मेरी मानिये तो बच्चों को शिक्षित करने के साथ संस्कारित अवश्य कीजिए और घर के बुजुर्गों के साथ भी उन्हें समय बिताने दीजिएगा क्योंकि बुजुर्गों के अपने अनुभव जब उन्हें मिलेंगे तब वे मजबूत बनेंगे और आज के दौर में बुजुर्गो के अनुभवों को आपको तरजीह देनी चाहिए क्योंकि वे ही हैं जो आपको इस दौर में मजबूत बनाएंगे। देखता हूं अंग्रेजी बोलते बच्चों के माता-पिता उन्हें तहजीब समझना ही भूल जाते हैं...। अंग्रेजी सफलता के लिए जरुरी है और संस्कार इस पूरे जीवन के लिए, पीढ़ियों के लिए और ऐसे कठिन दौर के लिए जिसमें आप बहुत भयभीत होकर जी रहे हैं। 


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13 Comments

  1. माँ आख़िर माँ ही होती है!दुनिया या इसके पार का कोई भी रिश्ता उसके समकक्ष नहीं।

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    1. सच्ची बात है, मन में ठहर जाते हैं मां के सबक। आभारी हूं आपका विश्वमोहन जी।

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  2. संदीप जी, बहुत गहराई है आपके चिंतन में! शिक्षा ने हमें शिक्षित तो कर दिया पर वो अनुभवजन्य ज्ञान हमारे भीतर ना रोप पाई ,पिछली पीढी जिसकी धनी थी! हम शायद कुछ हद तक वो चीजें अनुभव करने की क्षमता फिर भी रखते हैं पर भावी पीढी इससे लगभग खाली है! बेतहाशा प्रगति की चाह में सब कुछ पीछे छोड़ते अपनी जमीन से बहुत ऊँचे उड़ रहे हैं सब! अनपढ़ माँओं के स्पर्श की वो बरकत कौन सी थी और उनके मधुर स्वभाव में मिलनसारिता से सबके साथ बंधे रहने का वो प्रबन्धन क्या था, ये प्रश्न आज तक अनुत्तरित है!

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    1. जी रेणु जी...मां बहुत पास होती है हम सभी के...वो नेह का प्रतीक है और पिता जिम्मेदारी का...। आपकी प्रेरणादायी प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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  3. आभारी हूं आपका यशोदा जी..बहुत खुशी हुई कि आप हमारे बीच दोबारा उसी उत्साह से मौजूद हैं...ईश्वर का भी आभार।

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  4. माँ हर रिश्ते को जोड़ना जानती थी । उनका घर का मैनेजमेंट सुचारूरूप से होता था ।
    आज पढ़ी लिखी पीढ़ी भी उसे समझ नहीं पाती ।।अच्छा लेख

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    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी।

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  5. आदरणीय सर ,
    बहुत ही गहन और सत्यतापूर्ण लेख । मैं खुद एक युवा हूँ और मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपनी नानी माँ का सानिध्य मिला है । मैं ने अपने सभी जीवन-मूल्य उनसे खेल-खेल में उनकी कहानियों से सीखा है । हमारे बुजुर्ग हमारे परिवार की अमूल्य निधि होते हैं जिनका स्नेह और अनुभव जीवन-भर साथ रहता है। हृदय से आभार इस सुंदर लेख के लिए व आपको प्रणाम ।

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    1. जी बइुत आभार आपका...जो आपका ये आलेख पसंद आया। मां पूरा जीवन नेह देती है...।

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