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जीत ही जीत चाहिए...ये कैसा दंभ है


बहुत हुआ सबकुछ अब तक, बेशक तुम्हें पराजित होना पसंद नहीं है, हार स्वीकार नहीं है लेकिन ये सब तब ही तो संभव हो पाएगा जब ये धरती होगी, लोग होंगे, जीवन होगा, सपने होंगे, श्वास होगी, जल होगा। इन सबके बिना कहां किसी की जीत यदि ये नहीं तब हार ही हार है, हार भी वह जो आपकी इस दंभी जीत से उपजेगी। आईये बहुत चुका जीत और उसमें झूमने का नशा, आईये अब मानवीय हो जाईये। हम इंसान भी ना बहुत अजीब हैं, हममें घेरने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। हम पैदा होते हैं, अस्पताल में एक छोटे से झूले में समा जाते हैं, फिर माता पिता की छोटी सी गोद में, फिर शिक्षा की पहली छोटी सी पायदान, फिर पहले छोटे से सपने की ओर बढ़ना, फिर पहले सपने के सच होने पर खिलखिलना, फिर जीतना। यहां तक तो हम बहुत गहन और संक्षिप्त में जीने वाले होते हैं लेकिन फिर क्या होता है जब आप सफल होकर आततायी जैसा बर्ताव करने लगते हैं, जीत के बाद दो राह हो जाती हैं, एक केवल जीतना चाहता है और दूसरा जीतता भी है और हारता भी है, मेरी समझ से केवल जीत इंसान को जिद्दी और दंभी बना देती है, उसके अंदर का इंसान धीरे-धीरे के विचारों के रास्ते एक क्रूरतम जिद में तब्दील हो जाता है। 

जीतने वाले को केवल जीत चाहिए, फील्ड कोई भी हो उससे फर्क कहां पडता है, लेकिन हर बार जीत नहीं मिलती, हर बार हार भी नहीं मिलती लेकिन हार और जीत के बीच हमें इंसान बने रहना जरुरी होता है लेकिन अब तो अक्सर देखने में आ रहा है कि जीत पाते ही इंसान जीत को जब्त करना चाहता है, जीत को पाकर वह जीत पर एकाधिकार जमाना चाहता है जबकि हमेशा ऐसा नहीं होता। जीतने वाले यदि दंभी हो जाया करते हैं तब उनके साथ प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत काम करता है, उन्हें पता ही नहीं चलता कि जीत के आदी होकर वे कितनी बार हार जाते हैं, कितनी बार गिरते हैं, कितना गिरते हैं और गिरते ही जाते हैं। इस बीच हार भी है उसकी बात करने से पहले हमें उस प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर लौटते हैं, जब हम अपने आपको सर्वशक्तिशाली मानकर सीना चौड़ा कर भाग रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है जब हम बहुत गहरे गिरते हैं और चकनाचूर हो जाते हैं। अब इस दौर में तो ये भी देखा जा रहा है कि जीत के लिए किसी भी हद तक गिरा जा रहा रहा है, किसी भी सीमा के पार जाया जा रहा है, जीत अब हासिल की जा रही है, जीत अब छीनी जा रही है...ओफ गिरने की इंतेहा हो गई है। 

मैं पूछता हूं कैसी रेस है और कैसी जीत हार। कैसा दौर है इस दौर में भी प्रतिस्पर्धा है, धर्नाजन की, अपने आप को अच्छा साबित करने की, बेहतर बताने की, जीत का तमगा पाने की, अपने आप की ताजपोशी कराने की, जो इस दौर को एक सुनहरा अवसर मान रहे हैं, जो लूट रहे हैं, चूस रहे हैं, जो हैवानियत की हद तक पार जा चुके हैं, उनमें वे भी शामिल हैं जो ये सब देखते हुए खामोश हैं और अपने आपसे कोई सवाल नहीं पूछ रहे हैं वे हार रहे हैं, रात में अपना चेहरा आईने में देख नहीं पाएंगे क्योंकि उस पर पुती कालिख आपको अपना चेहरा नहीं देखने देगी। यकीन मानिये दुनिया के इतिहास को उठाकर देख लीजिए जो दंभी हुआ उसका अंत बहुत खतरनाक हुआ है, दंभी बनकर आप कुछ नहीं पा सकते, समाज को कुछ नहीं दे सकते।  

बात करें हार की तो हार हर बार भी खराब होती है लेकिन जीत के बाद हार और हार के बाद जीत ये नियति है और इसी को स्वीकार्य करना चाहिए। जो आज समृद्ध हैं वे सोचें कि किस तरह से वे अपने स्तर पर मदद के लिए आगे आ सकते हैं, खामोशी से घर पर बैठकर आप केवल अपने आप को बचा लेंगे लेकिन आप उस मानवीयता को स्थापित नहीं कर पाएंगे जिसकी आज आवश्यकता है और जिससे मानव की पहचान है। सीखिये ना ये समय का सबक है, ये दौर सबक लेकर आया है कि समरसता जरुरी है, एकालाप आपको अकेला कर देगा, आपकी चीखने की भी बारी आ सकती है तब आपको कौन सुनेगा, जीत का दंभ हमें अंदर से पत्थर की तरह सख्त बना देता है, टूटने दीजिए इस दौर में उसे क्योंकि ये दौर हमें टूटना सिखा रहा है तो सृजन की राह भी इस रास्ते निकलेगी। दंभी हो जाना मानवीयता को गला घोंटना है और मानवीय हो जाना इस दौर की आवश्यकता है। आईये जीत और हार, लाभ और हानि, अपने और पराये, धनवान और गरीब, ताकतवर और कमजोर के अंतर को बाजू में रखकर ये विचार करें कि ये दौर कुछ कह रहा है और उसकी सुनकर हम अपने जमीर की सुनते हुए केवल सहयोग में जुट जाएं, आपकी जीत तो तब भी बड़ी मानी जाएगी जब आपके कारण परेशान लोगों के चेहरों पर मुस्कान लौटेगी, उनकी परेशानी की काली घटा छंट जाएगी। सोचियेगा कि जीत के गुमान कहीं आपको ऐसे गहरी खाई में न ले जाए जहां न आपको कोई पहचान पाएगा और न ही कोई आपको याद करना चाहेगा। सोचियेगा अवश्य...। 

  


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11 Comments

  1. बहुत आभार आपका मीना जी।

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    1. बहुत आभार आपका नितीश जी।

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  3. बहुत अच्छा लेख। पूर्णतः उचित विचार।

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  4. बहुत आभार आपका माथुर जी।

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  5. "जो इस दौर को एक सुनहरा अवसर मान रहे हैं, जो लूट रहे हैं, चूस रहे हैं, जो हैवानियत की हद तक पार जा चुके हैं, उनमें वे भी शामिल हैं जो ये सब देखते हुए खामोश हैं और अपने आपसे कोई सवाल नहीं पूछ रहे हैं वे हार रहे हैं, रात में अपना चेहरा आईने में देख नहीं पाएंगे क्योंकि उस पर पुती कालिख आपको अपना चेहरा नहीं देखने देगी।"

    लूटने-खसोटने से फुर्सत मिलेगी तब तो अपने चेहरे को देखने का वक़्त मिलेगा। आज का कर्म कल हिसाब जरूर लेगा लेकिन इसकी परवाह किसे है।
    जिसमे जरा सी भी इंसानियत बची होगी उसकी आँखे जरूर खोलेगा ये लेख,बाकियों के तो भगवान मालिक है ,सादर नमन आपको

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  6. अच्छा लेख।

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  7. बहुत सारगर्भित विषय उठाया है, आपने ।कभी कभी ज्यादा की चाहत में हाथ खाली रह जाता है । वही दिख भी रहा है ।

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  8. बहुत आभार आपका

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