चीखेंं सुनिये, रुदन सुनिये, सुर्ख और सूजन से थकी आंखों को गौर से देखिये कितने सवाल हैं, कितना शोर है इनमें, ये दहक रही हैं, बेशक इस दौर में ये मौन हैं लेकिन क्या ये भविष्य लिखने वाली हैं...ये दौर सिखाकर जा रहा है कि आपको भविष्य में कैसा इंसान, कैसा समाज, कैसा विश्व तैयार करना है। कैसा क्रूर समय है बाजार का सबसे क्रूरतम चेहरा इस दौर ने दिखाया है, ये भी दिखाया है कि बाजार की असलियत क्या है और वो किस हद तक गिर सकता है और ये भी समझाया कि आप बाजार के पिछलग्गु बनाना छोड़ दीजिए ये केवल आपको छलकर ले जाएगा। 

बाजार में छल का गुण हमारी उथली शिक्षा, आलस्य और हमारे वैचारिक तौर पर पराधीन हो जाने का प्रतिफल है। बात करें इस दौर की तब क्या सोशल मीडिया और क्या मीडिया, सभी पर केवल चीखें हैं और दर्द है। कौन सा दर्द, दर्द वह जिसका वर्गीकरण आप कर सकते हैं, समाज कर सकता है, नीति नियंता भी कर सकते हैं लेकिन वह जिसने उस दर्द को सहा है, भोगा है, जीया है, जिसने किसी बेहद नजदीकी को खोया है तो वह उसका वर्गीकरण नहीं कर पाएगा क्योंकि उसके लिए तो केवल मन में गुबार है और चीख है जिसे एक खुला आसमान चाहिए जहां उसकी चीख गूंज सके, जहां उसकी चीख का प्रतिउत्तर सुनाई दे। जहां उसे चीखते हुए देख समाज उसकी ओर देख रहा हो, उसकी चीख के मायने और निष्कर्ष पर परिणाम भी जहां परिभाषित हो। दर्द में चीखते लोग थके नहीं हैं, रो रहे हैं, बोझिल हैं उनमें से बहुत से हैं जिन्होंने अपना पूरा परिवार खो दिया, अपनों की मौत पर अपनों का कांधा नहीं, अपनों की मौजूदगी नहीं, ये कैसी विदाई है अपनों की इस संसार से। दरअसल सत्य है कि जो तन लागे, सो जन जाने। 

मैंने इसी दौर में चीखते और रोते लोगों की मदद में उठते हुए कुछ हाथ भी देखे हैं जिन्होंने ये नहीं सोचा कि ये महामारी का दौर है और इसका असर उनके जीवन पर क्या होगा, कैसे बचेंगे वे इस दौर में। सिस्टम के अनुसार अपना सिस्टम बनाया और सेवा में जुट गए। ये सच है कि मानवीयता के कई उदाहरण भी हम देख रहे हैं लेकिन ये समाज की ओर से उठाए गए कदम हैं, समाज में कहीं दर्द बसता है, अपनापन भी बसता है जो अच्छे और भले लोगों ने सींचा है। ये दौर बहुत से सबक दे रहा है, कैसे जीना है, क्या खाना है, कितना खाना है, कैसे खाना है, कितने स्वतंत्र होकर बाहर निकलना है, किस पर भरोसा करना है, कैसे और कितना करना है। 

ये दौर ये भी सिखा रहा है कि भारत को अपनी पुरातन संस्कृति में लौट जाना चाहिए, एकल परिवारों का मोह खत्म हो और परिवार का वही समग्र स्वरुप हमें गढ़ना होगा। एक परिवार जब समग्र होता है, तब मुश्किलों और कष्टों को कई हिस्सों में विभाजित कर सभी बांट लेते हैं, लेकिन एकल परिवार कैसे इस दौर को सह पाए हैं वे खुद जानते हैं। इस दौर ने ये भी सिखाया है कि आपके पास कितनी भी अकूत संपत्ति है उससे कोई मतलब नहीं है, आपके कितने मधुर संबंध हैं ये महत्वपूर्ण है, अपार धन भी इस दौर में लोगों की जान बचा नहीं सका है, लेकिन वे अवश्य सुरक्षित रह गए जिन्होंने समय से संबंधांं को सींचा और बोया था। आपका दर्द सुनने का समय किसी के पास नहीं है और दर्द सुनने वाले खरीद भी नहीं सकते, लेकिन यदि आपने संबंध बोए हैं तब आपको अपने दर्द की नमी अपनों की आंखों में अवश्य नजर आएगी। बदलिए अपने आप को, ये समय कहता है कि आप समय से बदल जाएंगे, अपनों के करीब और अपनी महत्वकांक्षा से दूर होंगे तभी आप आने वाले समय में खुशियां की एक छत बुन पाएंगे। आपकी जिद, आपका अहंकार सब बोथरा साबित होगा जब आप अकेले होंगे, आपके संबंधों में यदि समरसता है तब मानिये कि आप इस दुनिया के सबसे गहन व्यक्ति हैं। केवल विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि इस खूबसूरत दुनिया में भावनाओं का मरुस्थल मत बनाईये। इसे यूं ही खूबसूरत रहने दीजिए और बेहतर बनाईये

चीखता हुआ वक्त कह रहा है कि दर्द को महसूस करना सीखये क्योंकि दर्द का नियम है उसकी कसक कब कहां और किसे भोगनी है पता नही है। सामूहिक परिवार भारत की पहचान थे, ताकत थे और हिम्मत भी, लेकिन इस दौर ने समझा दिया कि परिवारों का विखंडन और एक परिवारों का निर्माण केवल कुछ एकल सुख तो दे सकता है लेकिन समग्र दुख में भी आप अकेले हो। कोरोना का ये दौर बहुत कुछ दे रहा है, दर्द का एक ऐसा महाग्रंथ हर उस मन में आकार ले रहा है जिन्होंने इस दौर में अपनों को खोया है, बेशक संभव है कि हर ग्रंथ शाब्दिक आकार न पा सके लेकिन हर ग्रंथ एक हुंकार अवश्य बनेगा ये सत्य है और उसे कोई नहीं रोक सकेगा। 


(फोटोग्राफ अखिल हार्डिया जी, इंदौर मप्र का है, साभार )