ये वह दौर है जब एक सामान्य आदमी कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहा है, जूझ रहा है, खुद ही उलझ और सुलझ रहा है। बात करें उस अपने से लड़ते और सवाल करते आदमी की। भयभीत है क्योंकि महामारी फैली हुई है, घर से निकलना जरुरी है क्योंकि घर कैसे चले, पेट कैसे पले और बच्चों की पढ़ाई की गाड़ी कैसे खिंचे। पहले एक मास्क जरुरी था अब बताया जा रहा है कि दो मास्क जरुरी हैं, उस पर भी अधिक भीड़ में हैं तब फेस शील्ड भी चाहिए। चलिए वह घर पर समझाइश देकर और अपनों से भय में लिपटा ज्ञान लेकर निकल पड़ता है। बाजार में कौन ठीक है कौन बीमार कुछ पता नहीं है, अपने आप को पूरे दिन बचाता, हाथों पर महंगा सेनिटाइजर लगाता, बार-बार डरता और भयभीत होता अपनी डयूटी की जिम्मेदारी निभाता है। सब्जी की महंगी मार से उन्हें केवल देखता हुआ घर आ जाता है। रास्ते भर किसी की मौत की किसी के गंभीर बीमार होने की खबरों से कई बार हिल जाता है। घर की, परिवार की जिम्मेदारियों में अकेले में हैरान सा खुद को कोई हल खोजने को पूरा दिन उलझाता है। इसी बीच इंटरनेट बंद होते ही बच्चे चिल्लाते हैं, अपने आप को कोसता है कभी कंपनियों को। खीझता है नेट के रिचार्ज पर, कभी बच्चों पर। कहता है संभाल कर उपयोग करना सीखों नेट का। बीच में ही स्कूल के फरमान आ रहे हैं, किताबें जरुरी हैं, खरीदनी हैं, फीस का भय सता रहा है, उधर रोज मालिक डयूटी पर काम के बदले भय बताता है। 

डरा हुआ आदमी इन दिनों कई मोर्चों पर लड़ रहा है, उसके पास कोई हथियार नहीं है, लेकि हथियार किन्हें बना रहा है यदि परेशानी के बीच घर में बिटिया या बच्चे खिलखिला दें तब वह मजबूत हो जाता है, पत्नी पीठ पर हाथ रखकर कह दे कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा, सब मिलकर साथ हैं आपके वह धीरे से मुस्कुरा उठता है। इसी बीच किसी रिश्तेदार का फोन आ जाए कि फलां बीमार हो गया है, तब वह भयभीत सा आदमी उम्मीद बंधाता है, खुश रहना सिखाता है, न डरने और मन को मजबूत करने के सबक भी सिखाता है, फोन रखते ही अगले पल ठंडी श्वास लेकर अंदर से हिल जाता है। भोजन में क्या बनेगा क्या बना है और क्या बना करता था जब अच्छे दिन थे परिवार के इस पर चर्चा आरंभ होते ही वह आदमी बहुत ही जिम्मेदारी से परिवार को समझाता है कि जो है वह वैसा ही हमेशा नहीं रहेगा, समय निकाल लें हम मिलकर। सोने से पहले थका हुआ आदमी कुछ देर टेलीविजन के सामने बैठ जाता है, सिस्टम पर चीखते लोगों और जवाब सुनने न्यूज एंकरों पर अपनी बेबस नजर घुमाता है, बार-बार चैलन बदलता है, हर जगह बीमारी, उलझनों, परेशानियों और मौत का मंजर नजर आता है, वह भारी मन से बीच में कहीं पुराने गीत सुनने को ध्यान लगाता है, थका सा सोफे पर ही पसर जाता है, पत्नी आती है और कहती है बहुत थक गए हो, सो जाओ, वह उसे देख मुस्कुराता है और देर रात भी बेवजह चाय बनवाता है और पत्नी को पास बैठाता है, मन की समझाता है कहता है कैसा भयावह दौर है, पूरा दिन कैसे जीता हूं मैं ही जानता हूं, जीता क्या हूं केवल अपने शरीर को इस परिवार के लिए बचाकर लाता हूं, हर पल घबराता हूं कि कहीं परेशानियां ने घेर लिया तब क्या होगा, लेकिन अगले ही पल पत्नी कहती है क्यों घबराते हो वे हमारे साथ-साथ खिलखिलाने वाले दिन अवश्य आएंगे, अमावस की रात स्याह होती है लेकिन बीतती तो अवश्य है और हम मिलकर इस मुसीबत वाले दौर को पार कर जाएंगे, मन ही मन वो दोबारा मजबूती पाता है और पत्नी के कांधे पर हाथ रख उसे मजबूत होने का अहसास करवाता है और थका हुआ आदमी रात को अपने घर के उस सुरक्षित से लगने वाले कमरे में सो जाता है, अगली सुबह के उगने वाले दिन और उसकी मुसीबतों को भूलकर....। 

ऐसा ही कुछ है आजकल का दौर, ये हर घर की कहानी है जो समृद्व है वह भी परेशान है और जो मध्यमवर्गीय है वह डरा सा एक पूरा दिन मुश्किल से काट रहा है क्योंकि परिवार उसके लिए उसकी सबसे खूबसूरत दुनिया है और वह उस दुनिया को मुस्कुराते देखना चाहता है और इसी के लिए वह आदमी पूरा दिन बिता आता है, खतरे में मुस्कुराता है और हर रात उम्मीद को जल अर्पित करता है कि आने वाला कल पहले की तरह खूबसूरत होगा। अब बताईये क्या हर आदमी अंदर अनुभव का एक महाग्रंथ नहीं लिख रहा है...देखियेगा ये दौर बीतेगा तब आदमी जीएगा और लिखेगा मुसीबतों के इन दिनों को अपने दर्द की स्याही में भिगोकर। हर आदमी अब अंदर से जंगल है, सूखा गया है, तप रहा है...कहीं कहीं सुलगता और बुझता हुआ, धुंआदार आदमी।