प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे दीवानों की भांति भागता है, ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है, ये प्रकृति के भाव में जीता है, ये वृक्ष के सीने में कहीं कोई बीज बनकर पनप उठता है, ये कुछ मांगता नहीं है, ये देता ही देता है, ये जीता है और जीता केवल अपने लिए, अपने जैसों के भरोसे पर...। तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।