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प्रेम का अनुरोध


प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे दीवानों की भांति भागता है, ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है, ये प्रकृति के भाव में जीता है, ये वृक्ष के सीने में कहीं कोई बीज बनकर पनप उठता है, ये कुछ मांगता नहीं है, ये देता ही देता है, ये जीता है और जीता केवल अपने लिए, अपने जैसों के भरोसे पर...। तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।


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13 Comments

  1. जी बहुत आभार आपका।

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  2. जी यशोदा जी...आभार आपका...

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  3. आदरणीय गगन शर्मा जी बहुत आभार आपका।

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  4. प्रेम कण कण में व्याप्त है, बस देता है बहुत सुंदर बात ।

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    1. आभार आपका संगीता जी...

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  5. प्रेम की सुंदर परिभाषा दी है आपने, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त इस प्रेम से ही तो इस सृष्टि का आयोजन हुआ है

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  6. तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।
    वाह क्या खूब कहा आपने संदीप जी | प्रेम और प्रकृति एक दुसरे के पूरक हैं | काव्य सरीखे गद्य के लिए आभार

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    1. आभार आपका रेणु जी...। प्रकृति स्वयं आपको सिखाती है, बनाती है और संवारती है...। आभार

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