प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे दीवानों की भांति भागता है, ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है, ये प्रकृति के भाव में जीता है, ये वृक्ष के सीने में कहीं कोई बीज बनकर पनप उठता है, ये कुछ मांगता नहीं है, ये देता ही देता है, ये जीता है और जीता केवल अपने लिए, अपने जैसों के भरोसे पर...। तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।
13 Comments
सार्थक विचार।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteजी यशोदा जी...आभार आपका...
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआदरणीय गगन शर्मा जी बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteप्रेम कण कण में व्याप्त है, बस देता है बहुत सुंदर बात ।
ReplyDeleteआभार आपका संगीता जी...
Deleteप्रेम की सुंदर परिभाषा दी है आपने, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त इस प्रेम से ही तो इस सृष्टि का आयोजन हुआ है
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteसार्थक लेखन
ReplyDeleteबहुत आभार आपका...
Deleteतुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।
ReplyDeleteवाह क्या खूब कहा आपने संदीप जी | प्रेम और प्रकृति एक दुसरे के पूरक हैं | काव्य सरीखे गद्य के लिए आभार
आभार आपका रेणु जी...। प्रकृति स्वयं आपको सिखाती है, बनाती है और संवारती है...। आभार
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