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हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...

 


जब किसी किले में पहुंचता हूं बार-बार  अंदर से एक ही आवाज सुनाई देती है कि ‘हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...’। मैं आम व्यक्ति बनकर जब भी किले में दाखिल होता हूं तब मेरे साथ चलती है कतरा-कतरा आदमियत...सहमी सी, डरी सी और अपने में कहीं बहुत गहरी उलझी सी...। गाइड जो इतिहास रट चुका है, इतिहास जिसकी रोजी है, रोटी है, कहता जाता है, कहता जाता है वही सब जो उसने पहले वालों से कहा और वही जो उसे किताबें बताते आई हैं, हां उसमें भी आम आदमी बसा करता है वही डरा सा, सहमा सा...लेकिन पतले और सूखे से बदन से गोटियों की तरह झांकती आंखें किले में क्या खोजती हैं, वो गाइड को देखती हैं, लेकिन हुकमरां को महसूस भी करना चाहती हैं। सदियां बीत गईं, राजसी किले अब बाहर से भी खंडहर होने लगे हैं, अंदर कहीं संबंधों की राख है, कहीं बेहताशा शानो-शौकत...। गाइड नहीं थमता, उसे कहना है उसे उसी तरह लय में कहना है राजा की तारीफ, राजा के जीवन का वर्णन...उसके पुराने हो चुके कपड़े, हथियार, वाहन, पहनावा और भी बहुत कुछ...गाइड सिर झुकाकर अब तो आरामगाह में भी दाखिल हो जाता है उस बेसब्री आंखों से लदी भीड़ को...धीरे से कहता है यहां वे रानी के साथ विश्राम करते थे...और बाहर आ जाता है...। आम आदमी गाइड की नहीं सुनता वो उस आरामगाह के ऐशो आराम को अपनी गोटियों जैसी आंखों से चुग लेना चाहता है मानों वो सत्ता कभी उसकी कर्जदार रही हो...गाइड कहता है ये सिंहासन है यहां से राजा का दरबार चलता था, आम आदमी फिर नहीं सुनता अबकी तो वो कान पर हाथ रखकर पीठ कर लेता है उस सूने सिंहासन की ओर...गाइड पूछता है क्यों क्या हुआ भाई देखना नहीं चाहते...वो डरा सा, सहमा सा खीसे निपोरता हुआ नहीं कह देता है, बुदबुदाता है हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...। वो दबी नजरों से सिंहासन को देखता है और उसे दरबारियों का शोर विचलित कर देता है, वे चीख रह हैं राज्य के संकट पर, लेकिन हुकमरां मौन हैं, वे चीख रहे हैं राज्य में फैली बीमारी पर लेकिन हुकमरां खामोश है, वे चीख रहे हैं कि फसलें चौपट हो गई हैं, लेकिन तंत्र उनकी जेब खींच रहा है लेकिन हुकमरां चुप हैं, वे चीख रहे हैं कि जनता भूखी है, नंगी है, बेजान है, उलझी है और बीमार है....लेकिन हुकमरां खामोश हैं....। उस भीड में खडे़ आम आदमी पर गाइड हाथ रख देता है और उसका मौन टूट जाता है...गाइड कहता है क्या बुदबुदा रहे थे कि हुकमरां तुम्हें सुनना कौन चाहता है, आम आदमी बोला हां सच तो है किले की ये दीवारें कभी भेद नहीं पाईं आम आवाजों को, अलबत्ता किले भेदे जा चुके हैं। आज भी चीखें हैं किले के अंदर और बाहर एक समान...। गाइड कहता है कि पहले भी राजा और बादशाह कहते थे, लोगों की सुनते थे उनके लिए काम करते थे, आम आदमी बोला हां, बहुत ही थोडे से थे, लेकिन ये किले और उसकी दीवारें बताती हैं कि खाई सदियों पहले भी थी और आज भी है, रही बात हुकमरां के कहने की तो वो वही कहते थे जो उन्हें कहना होता था, आम व्यक्ति उसे सुनना नहीं महसूस करना चाहता था, पहले भी और अब भी...गाइड उसे देखता रहा गया, आज बेशक किले नहीं हैं लेकिन दीवारें तो हैं...। भीड़़़ जा चुकी थी आम आदमी भी खामोश सा हमेशा की तरह सवालों में उलझा हुआ बाहर निकल गया, जाते हुए बोला सुनो गाइड इतिहास का सच ही कह रहे हो ना तुम...पूरा सच या आधा अधूरा...? क्योंकि इतिहास भी वही बना है जो हुकमरां चाहते थे... गाइड दीवारों से सटकर खड़़ा रह गया....। 


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15 Comments

  1. जी आभार आदरणीय...

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 21 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपने किले की दास्ताँ सुनते सुनते कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया ... क्षमा चाहूँगी ...पहली टिप्पणी आपके लेखन के अनुरूप नहीं थी ..इस लिए हटा दी ... फोन पर थोडा पढने में कठिनाई हो रही थी ..इसी लिए आपके ब्लॉग पर दोबारा आई हूँ पढने ...अब साफ़ साफ़ लिखा समझ आ रहा कि ये किला और गाइड वो नहीं है जो दिखाया जा रहा है .... ये सियासतदां और आम आदमी की कहानी है जो गढ़ी गयी है ...

    किले की ये दीवारें कभी भेद नहीं पाईं आम आवाजों को, अलबत्ता किले भेदे जा चुके हैं। आज भी चीखें हैं किले के अंदर और बाहर एक समान...।
    गहनतम बात ...

    क्योंकि इतिहास भी वही बना है जो हुकमरां चाहते थे... गाइड दीवारों से सटकर खड़़ा रह गया....।
    सटीक बात कह दी है ... असली इतिहास तो दफ़न ही हो गया है ..
    सार्थक लेखन ..

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    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी। किले आपसे बात करते हैं, यदि आप अकेले हों...। गाइड को सुनना किले का गौरव दिखाता है, हालात ठीक ऐसे ही हैं जैसे पहले हुआ करते थे।

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  4. आज भी हुकमरां और सामान्य जनता की यही कहानी दोहराई जा रही है। आज भी इतिहास रचा जा रहा है, वैसा ही रचा जा रहा है जैसा हुकमरां चाहते हैं। किले नहीं होंगे, गाइड नहीं होंगे पर इतिहास तो रहेगा और कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है !!!

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    1. किले तो कल भी थे और आज भी हैं, लेकिन ये दौर है जो उस दौर के दर्द को भी उभार रहा है। बहुत आभार आपका।

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  5. पहले भी राजा और बादशाह कहते थे, लोगों की सुनते थे उनके लिए काम करते थे, आम आदमी बोला हां, बहुत ही थोडे से थे, लेकिन ये किले और उसकी दीवारें बताती हैं कि खाई सदियों पहले भी थी और आज भी है, रही बात हुकमरां के कहने की तो वो वही कहते थे जो उन्हें कहना होता था, आम व्यक्ति उसे सुनना नहीं महसूस करना चाहता था, पहले भी और अब भी...... आदमी भी खामोश सा हमेशा की तरह सवालों में उलझा हुआ बाहर निकल गया, जाते हुए बोला सुनो गाइड इतिहास का सच ही कह रहे हो ना तुम...पूरा सच या आधा अधूरा...? क्योंकि इतिहास भी वही बना है जो हुकमरां चाहते थे... गाइड दीवारों से सटकर खड़़ा रह गया....। आदमी भी खामोश सा हमेशा की तरह सवालों में उलझा हुआ बाहर निकल गया, जाते हुए बोला सुनो गाइड इतिहास का सच ही कह रहे हो ना तुम...पूरा सच या आधा अधूरा...? क्योंकि इतिहास भी वही बना है जो हुकमरां चाहते थे... गाइड दीवारों से सटकर खड़़ा रह गया....।
    बहुत सुन्दर रचना👌👌

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    1. जी बहुत आभार आपका उषा जी। सीखने को दीवारें भी सबक लिए बैठी होती हैं, दरारें भी सिखाती हैं और उनसे झरती उम्मीद सी रौशनी भी।

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. एक अनकहा प्रलाप आम आदमी का जो सदियों से भीतर ही दफ़न है! यही ढका लिपटा आंतरिक संवाद बह चला शब्द बनकर! आखिर हुकमरांन् को सुनने कौन बैठा है! दो तरह से देखती हूँ आम आदमी की पीड़ा को! आज लोकतंत्र है, सो पुराने किले मात्र मकबरे सरीखे लगते हैं, जिनकी ऊँची अटालिकाओं की नींव मे अनगिन मज़लूमों की आवाजें दफ़न हैं जिन्हें निरंकुश हुकमराँ सुन नहीं पाए या उन्हें सुनने नहीं दिया गया! दूसरे आज आम आदमी को भ्रामक ही सही
    एक संतोष और विश्वास तो है कि कभी- कभी सत्ता में एक मत की उसकी भी हिस्सेदारी होती है! निशब्द कर गया आपका ये लेख संदीप जी!

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    1. उत्साह को हमेशा की तरह मजबूती देती आपकी प्रतिक्रिया। आभारी हूं।

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  8. इस लेख का तो एक-एक लफ़्ज़ दिल पे चोट करता है संदीप जी। मैंने इसे अतीत के संदर्भ में भी समझा और वर्तमान के संदर्भ में भी। हम लोग आम आदमी ही तो हैं। आम आदमी के हवाले से आपने अपनी-हमारी और आज के सारे अवाम की बात कह दी है। वाक़ई हुक्मरां को अब कौन सुनना चाहता है? सुन-सुन के बहुत थक गए हैं हम अब्।

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    1. आभारी हूं जितेंद्र जी आपका। ये लेख हम सभी का है, हमसे पहले जी चुके अहसासों की बानगी है। आभारी हूं आपका।

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