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हौंसले के पैरों खड़ा अब तक

हमने तो कसर न की उसे मिटाने की, 
वह है हौंसले के पैरों खड़ा अब तक

प्रकृति ने हमें जीवन दिया और हमने उसके शरीर की शिराओं में काला जहर घोल दिया है...। पता नहीं हम कैसे हैं...हमने प्रकृति पर आंखें मूंद रखी हैं...। मैं काफी देर ठिठका सा रह गया... वो पेड़ अपने आत्मबल पर खड़ा था वरना हमने तो उसकी जड़ों में जहर घोल ही दिया है...। 

हम ऐसे ही तो नहीं थे, लेकिन ऐसे हो गए कैसे गए और क्यों ? क्यों हमें यह नहीं लगता कि जो श्वास देते हैं, जीवन देते हैं, पानी देते हैं, उम्मीद देते हैं, छांह देते हैं, हरियाली देते हैं उन्हें आखिर हम क्या दे रहे हैं वह काला पानी और उसका वह अनचाहा जहर। 

ओह...मैं नहीं समझता कि जिंदगी में इससे प्रमुख कुछ है कि हम प्रकृति पर यदि उदासीन हैं और पूरी उम्र उदासीन बने रहते हैं तब यकीन मानिये कि हमने जीवन जीया ही नहीं, हम तो केवल एक उम्र का सफर तय कर रहे हैं। खैर, मुझे यह दर्द हर जगह गहराई तक आघात करता है...। 




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11 Comments

  1. बहुत आभार आपका आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल जी। मेरे लेखन को सम्मान देने के लिए साधुवाद। सच कुछ विषय हम सभी की जिम्मेदारी हैं, आखिर समझ के बिना सबकुछ ठीक भी तो नहीं होने वाला।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-8-21) को "बूँदों की थिरकन"(चर्चा अंक- 4152) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. जी बहुत आभारी हूं आपका आदरणीया कामिनी जी। साधुवाद मेरे लेखन को सम्मान देने के लिए।

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  3. बहुत सही कहा आपने संदीप जी,प्रकृति के होता अन्य कहीं भी दिख जाय,बड़ा दर्द देता है ।

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    1. आभार आपका जिज्ञासा जी...।

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  4. संदीप भाई, यही तो विडम्बना है कि हम लोग सिर्फ खुद के बारे में सोचते है प्रकृतिनके बारे में नही सोचते।

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  5. आभार आपका ज्योति जी...आप सही कह रही हैं लेकिन यह सोच हमें एक दिन गहरे गर्त की ओर ले जाएगी और जहां से फिर कोई सूर्य उम्मीद का नहीं दमकेगा।

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  6. न जाने जड़ों में क्या जायेगा, न जाने क्या हो जायेगा? विचारणीय सत्य।

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  7. बेहद प्रभावी और विचारणीय आलेख
    बहुत अच्छी बात कही है

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  8. उफ़्फ़ ,और कितना आघात करेंगे हम ?
    कुछ तो सुधर लें ।

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  9. हृदयस्पर्शी सोच लिए एक ज्वलंत प्रश्न जो हमें अपने आपसे पूछ कर
    प्रकृति के बारे में भी सोचना चाहिए।

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