फ्रांस का अध्ययन है कि 2000 से 2020 के बीच ग्लेशियर के मेल्ट होने की स्पीड दोगुनी हो चुकी है ये उनका अपना अध्ययन है, क्या करेंगे ग्लेशियर। समुद्र में जाएंगे समुद्र का तल बढे़गा, हमारे 70प्रतिशत पानी का सोर्स हिमखंड ही हैं। पानी की हाय-हाय मचेगी। समुद्र को बर्बाद करने में आपने पूरा जोर लगा दिया, सारा कचरा समुद्र में जाए तो ये प्रबंधन का अभाव ही तो है। चार सौ डार्कजोन वैसे ही समुद्र में बन चुके हैं, वह मानसून को भी प्रभावित करेगा। मनुष्य ने अपनी एक भूल से आने वाला गहरे भविष्य खतरे में डाल दिया है। हमने ये एक मापदंड बना लिया रखा है कि कितनी बार चाइना गए, इग्लैंड गए और क्या करके आए। अपने देश में ही देखियेगा वैज्ञानिकों को सम्मान ही तब मिलता है जब उनकी कोई वैज्ञानिक शोध अमेरिका के जर्नल में छपे या इग्लैंड में। ये एक तरह की दासता है, गुलामी वाली हमारी सोच है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो तो हमारे वेद शास्त्रों में अदभुत प्रयोग बहुत पहले ही किये जा चुके हैं और कभी भी हमने उन पर झांककर देखने की कोशिश नहीं की वरना सभी तरह के उत्तर हमारे पास थे। हमें समझना होगा कि जीवन से ही जीवन पलता है। बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है।
ये विचार प्रकृति संरक्षण पर प्रेरक कार्य कर रही इंदौर की सेवा सुरभि संस्था द्वारा 2 जून को आयोजित वेबिनार में पद्मश्री, पद्म भूषण माउंटेन मैन डॉ. अनिल जोशी जी व्यक्त किए। कोरोना के बाद पर्यावरण’ विषय पर आयोजित इस वेबिनार में वक्ता के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार खुशहाल सिंह पुरोहित जी भी शामिल हुए।
डॉ. अनिल जोशी जी ने कहा कि पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि प्रकृति दो सालों में विभिन्न तरीके से हमें कुछ सिखा रही है। क्या सिखाना चाहती है वह बहुत साफ और सामने है। पहला बड़ा सबक कि जिस चीज के पीछे हमने लंबी चौड़ी दौड़ लगाई और अंत में एक ही सूत्र और मंत्र माना था कि इकोनॉमी आर्थिकी बेहतर होनी चाहिए और करीब 1935-40 के आसपास उससे पहले यूरोप जो दुनिया का तथाकथित सबसे विकसित भूखंड है उन्होंने औद्योगिकीकरण की नींव रखी, बात ये थी कि खेती बाड़ी से खाली पेट भर सकता है पर अगर जीवन में मौज करनी है और बेहतर सुविधाएं उठानी हैं तो वो एक ही रास्ते से बेहतर हो सकता है कि हम उद्योगों के उत्पादों को बेहतर जीवन के लिए लाएंगे और इससे आर्थिकी रोजगार पैदा होंगे। 1950 के आसपास अपने देश में भी सबसे बड़ी चुनौती थी कि इकोनॉमी की और हम भी उसके पीछे दौड़ गए। जब हम सब दौड़ लगा रहे थे तब हम कुछ चीजें भूल गए क्योंकि ये हमारी प्रवृत्ति बन गई है कि जो कुछ होना है और जो हमारी दिशा तय कर रहा है वह सात समन्दर वाले ही बेहतर कर सकते हैं क्योंकि अंग्रेजों ने राज किया था तो वो ही उनके अंग्रेजी सूट बूट और हैट...। हैट ने हमारी बुद्वि खो दी और कपड़ों ने हमारी वेशभूषा खो दी और भोजन पर तो स्वतः आक्रमण होना ही था। जब हैट पहन लिया सूट पहन लिया तो आपका भोजन तो कांटों से ही चलेगा। हमने तीनों चीजें खोई, सबकुछ खो दिया और इसको कहा गया डेव्लपमेंट। इसको ही विकास की परिभाषा का मूलमंत्र मान लिया गया। जब ये सबकुछ हो रहा था, ये सबकुछ करते सारी दुनिया के लोग पर हम तो कुछ और थे। हम उस देश के रहने वाले थे जहां हवा, मिट्टी, जंगल, पानी को देवतुल्य माना जाता है। हमारे शास्त्रों में बड़ा स्पष्ट है भूमि मां है, ये मां हमको पालेगी लेकिन ये मन में नहीं रहा और हमारे मन लालची हो गए, हमने उसी और दौड़ लगा ली कि जिस ओर सारी दुनिया चली गई। अब एक सवाल खड़ा हो गया कि वो तमाम तरह के विकसित देश वो तमाम तरह के मजबूत देश जहां आप और मैं भी दौड़कर जाना चाहते हैं और हमने ये एक मापदंड बना लिया रखा है कि कितनी बार चाइना गए, इग्लैंड गए और क्या करके आए। अपने देश में ही देखियेगा वैज्ञानिकों को सम्मान ही तब मिलता है जब उनकी कोई वैज्ञानिक शोध अमेरिका के जर्नल में छपे या इग्लैंड में। ये एक तरह की दासता है, गुलामी वाली हमारी सोच है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो तो हमारे वेद शास्त्रों में अदभुत प्रयोग बहुत पहले ही किये जा चुके हैं और कभी भी हमने उन पर झांककर देखने की कोशिश नहीं की वरना सभी तरह के उत्तर हमारे पास थे। हमारी गलती ये थी कि शब्दों में अंतर नहीं कर पाए और वह शब्द था हमने कहा डेव्लपमेंट, आप चले जाईये अपने चार सौ, पांच सौ, छह सौ साल पहले भारत के इतिहास में ये कहीं शब्द नहीं था। ये विकास नामी शब्द किसी युग में नहीं था, कलयुग में ही इसका जन्म हुआ जबकि हमारा शब्द कुछ और था हमारा शब्द था समृद्धि, डेव्लपमेंट तो बड़ी अकेली सी चीज है कि आप कोई इंस्फास्टचर डेव्लप कर रहे हो, बाजार बना रहे हो, मॉल बना रहे हो वही जो हम अपनी पश्चिमी सोच और तरीकों से बात करते हैं वही हमारे सामने हमारा मूलमंत्र बन गया। समृद्धि का मतलब होता है सबको जोड़कर बेहतर जीवन ही समृद्धि कहलाती है। आप अपने क्षेत्र के विकास की बात करते हैं तो वहां सबकुछ हो खेती बाड़ी भी हो, सड़क भी हो, अस्पताल भी हो, जंगल भी हो, पानी भी हो इसे समृद्धि कहते हैं और विकास किसे कहते हैं ताबड़तोड़ आप बड़े बडे़ ढांचों को तैयार कर दो, बड़े बड़े उद्योगों को लगा लें, विकासनामी शब्द के आसपास यही चीजें घूमती रहेंगी, हमने समृद्धि को भुला दिया और यही सबसे बड़ा कारण भी बना। हमने क्यों नहीं सोचा कि आखिर इस देश में जब शास्त्रों ने तमाम बातें कही हैं, जीवन के मूल तत्वों को ही सबकुछ माना है क्योंकि आपको आश्चर्य होगा कि हमारे यहां जो बातें कहीं गई उन बातों का वैज्ञानिक आधार भी है। अब आप देखिये हमारे ही तथ्यों के बीच में कहा गया कि आप अकेले नहीं हैं, आप अकेले जी भी नहीं सकते और सत्य भी है कि आप और मैं निर्भर हैं इस पृथ्वी पर निर्भर हैं, हम हवा, मिट्टी, पानी, कार्बन, नाईटोजन, फास्फोरस से तो बने हैं, हम निर्भर हैं और दूसरी बात पारस्परिक निर्भरता भी है, आपको कुछ खाना है तो पत्थर नहीं खाएंगे आप। आप फसल पैदा करेंगे, वृक्षों पर उगाएंगे, जीवन से ही जीवन पलता है यहां यही कहा गया है, यहां ये भी कहा गया तत्वों का आदान प्रदान है ये। आप एक केमिकल सिस्टम हैं, जिसके आप बने हैं उसी से तो पौधे और फसल बनती है, उन सभी तत्वों की आवश्यकता उन्हें भी होती है तो ये एक केमिकल दूसरे केमिकल में टांसफर होता है। भोजन के रूप में और इसी को पृथ्वी ने तय किया जीवन आपसी होगा, पारस्परिक होगा। हमारी आदत है कि यूनाईटेड नेशन कहेगा, अमेरिका कहेगा तो सबकुछ हो जाएगा, बड़े-बड़े देश कहेंगे तो हम उनके पीछे भागेंगे।
मेरा सवाल यह है कि कौन सी चीज ससटेनेबल है बताईये। 1972 के बाद कोई योजना सरकारी या गैर सरकारी हो या कोई भी हो एक शब्द जरूर कहा जाता है ससटेनेबिलिटी, ससटेनेबल प्रोजेक्ट, ससटेनेबल फार्मिंग...। कौन सी चीज ससटेनेबल रह गइंर् नदियां खत्म, हवा खत्म, आपकी इमोनॉमी जिसके लिए आपने इतनी दौड़ लगाई तो पाताल में पहुंच गई जीडीपी। दो साल से उपर नहीं आ पाई। जीडीपी की मारकाट थी जिसके प्रताप से इतने तमाम तरह से विश्व भर में जो आज जीडीपी का बड़ा संकट आया एक ऐसे जीव ने जो कि प्रकृति ने मनुष्य के दुस्साहस को देखते हुए उसे बोतल से बाहर निकाल दिया और सारी दुनिया में उसने एक साथ आक्रमण कर दिया। बताईये कौन सा डेव्लपमेंट काम आया, अमेरिका फ्लेट, इटली फ्लेट, स्पेन फ्लेट सब एक एक करके धराशाही हो गए कहां गए उनके विकास के तथाकथित अस्पताल और देखिये दो साल में वो जीडीपी पाताल में पहुंच गई। इकोनॉमी सबकुछ नहीं हो सकती अगर इकोनॉमी को बेहतर बनाना है तो बेहतर ईकोलॉजी होनी चाहिए। मै ंये भी कहना चाहूंगा कि डेव्लपमेंट जो है वो भोगवादी सभ्यता को पनपाता है और हमारा प्रोसपेरिटी जो शब्द था वो संरक्षण की तरफ भी इशारा करता है। दोनों में बड़ा अंतर है समृद्वि संरक्षण को जोड़ते हुए ही कल्पना करती है। मैं किसी विकास के विरुद्व नहीं हूं, पर सवाल ये पैदा होता है कि हमारी लालच की सीमा क्या होगी, हम कितना कुछ करना चाहेंगे, कितना पृथ्वी को नोचेंगे, डेव्लपमेंट का प्रसाद है जो किसी के किसी के हाथ लगता है सभी के हाथ नहीं लगता जबकि समृद्धि में ऐसा नहीं होता। समृद्धि सब की भागीदारी पर बात करती है सबसे साथ जुड़ना ये समृद्धि ने हमें सिखाया है। हमें कहीं समझना होगा कि कहीं हम भूल और चूक कर रहे हैं क्योंकि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा। आप क्यों नहीं मान रहे हैं कि कुछ दिनों पहले तूफान आया, उससे कुछ दिनों पहले ताउते आया, उससे पहले एंफर आया पिछले एक दशक में कितने कितने तूफान ने हमको चपेट में लिया है। सोचिये ये नये नये तूफान, नये नये नामों के साथ जो प्रकट हो रहे हैं क्यां हो रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। अब बीमारियों को देख लीजिए, एक डेढ़ दशक में कितनी नई नई तरह की बीमारियां झेली हैं और ये सबकुछ सांइटिफिक स्टडी है, ये सब सोर्स वाइल्ड एनिमल से गए हैं, उन्हें आप खाने पर उतारु हो गए। ये जो प्रवृत्ति हमारी बन रही है ध्यान रखिये कि बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है। भोगवादी सभ्यता भयानक सीमा पर जा चुकी है, अब समय आ गया है कि हमारा देश इस ओर चिंतित होना चाहिए, क्या आप बता सकते हैं कि कितना जंगल बढ़ा है, क्वालिटी और क्वांटिटी में, बताईये कि कितना पानी हमें इंद्रदेव से मिला और हमने उसे संरक्षित किया, उसे बहने क्यों दिया। नाम था प्राणवायु अब वही प्राण लेने लग गई है। जब प्राणवायु को प्राण लेने वाला हमने बना दिया हो तो क्या लगता है प्रभु हमें माफ करेंगे दंड तो झेलने ही पडें़गे। अभी समय है कि हम नये सिरे से सोचना शुरू करें, कोरोना काल में शायद ये समझ हमें बनानी होगी कि हम प्रकृति के प्रति किस तरह पेश आएं क्योंकि इसके बाद शायद हमें कोई अवसर नहीं मिलेगा क्योंकि कोरोना ने जिस तरह से पूरी दुनिया को लपेटा है, कल कुछ और आएगा, समय समझने का है। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार खुशहाल सिंह पुरोहित ने कहा कि प्रकृति के साथ हमारा मां- बेटे का रिश्ता है। प्रकृति की पूजा करना हमारे संस्कार में रहा लेकिन आज हम उसका शोषण भी कर रहे हैं जिसके कारण पृथ्वी का जल स्तर गिरा ,नदियां प्रदूषित हुई और हवा सांस लेने लायक नहीं रही।
वेबिनार मे डॉ. पर्यावरणविद किशोर पवार, डॉ. जयश्री सिक्का, पत्रकार संदीप कुमार शर्मा, मेघा बर्वे, डॉ. संदीप नारुलकर, डॉक्टर मनीष गोयल डॉ. ओ.पी. जोशी, डॉ. मनीष गोयल, शिवाजी मोहिते, कुमार सिद्धार्थ पेनल में शामिल किए गए। ओमप्रकाश नरेड़ा जी ने संस्था सेवा सुरभि के संबंध में जानकारी दी। इस बेविनार के कार्यक्रम संयाजक और सूत्रधार ख्यात भूजलविद और पर्यावरणविद सुधींद्र मोहन शर्मा जी थे। अंत में आभार माना वीरेंद्र गोयल जी ने।
मेरा सवाल उत्तराखंड के पेयजल संकट पर
इस वेबिनार में मुझे डॉ. अनिल जोशी से सवाल पूछने का अवसर मिला तब मैंने उत्तराखंड पर एक सवाल पूछा जिसका आपने बहुत ही सुलझा हुआ जवाब दिया। मेरा सवाल था कि उत्तराखंड में भी अब पेयजल संकट गहराने लगा है, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में देख रहे हैं कि प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखने लगे हैं, विशेषकर नौले या तो सूख गए हैं या लापरवाही के चलते सुखा दिए गए हैं...ऐसे में उत्तराखंड की प्यास कैसे बुझेगी, कैसे उत्तराखंड को पेजजल संकट की ओर बढ़ने से रोका जाए, इसका क्या हल हो सकता है।
हमारे प्रयास जारी हैं, उम्मीद हैं बेहतर परिणाम आएंगे
2010 में एक प्रयोग हुआ है हम हमारे साथियों द्वारा कि जो जलागम होते हैं वही हमारे धारों के सोर्स हैं और वर्षा जनित नदियों के भी सोर्स हैं, इन जलागमों का ही पानी के जलछिद्रों के द्वारा क्योंकि वृक्षों का भी वही योगदान है जो जलछिद्र करेंगे तो हमने एक मीटर स्कावयर के एक हेक्टेयर के तीन सौ, चार सौ जलछिद्रों को बनवाया, पोंड बनवाए ताकि बारिश का पानी जलछिद्रों में पडे़ और ये सीधे धारों को भी सींचे, मैं आपके संज्ञान में ले आना चाहता हूं कि पांच छोटी नदियों का वापसी जन्म हुआ और 126 धारे तैयार हुए, हमने सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की है, खास तौर पर वन विभाग को। इसके कुछ परिणाम दिखाई देने शुरू हो चुके हैं आशा है आने वाले समय में चार पांच साल में बेहतर परिणाम हमारे पास होंगे।
15 Comments
जी बहुत आभार आपका मीना जी...। इस आलेख का सभी तक पहुंचना जरुरी है...आपने इसका चयन किया इसके लिए आभारी हूं।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी बहुत आभार आपका श्वेता जी...।
Delete"बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है"
ReplyDeleteलाख पते की बात कही है आपने,
"गुलामी वाली हमारी सोच है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो तो हमारे वेद शास्त्रों में अदभुत प्रयोग बहुत पहले ही किये जा चुके हैं और कभी भी हमने उन पर झांककर देखने की कोशिश नहीं की वरना सभी तरह के उत्तर हमारे पास थे।"
तभी तो ये कहावत बनी है "घर की मुर्गी दाल बराबर" हमारी सबसे बड़ी भूल यही थी और है हम आज भी पड़ोसियों के घर की ज्यादा खबर रखते है अपनी नहीं।
अभी देख नहीं रहें,अपने देशी धरोहर,देशी परम्परा का निबाह करने की किसी ने हमें राह दिखाई और हमने उसे अपनाने की शुरुआत की तो कैसी हायतौबा मची है। आपने अपनी बात बहुत ही सशक्त तरीके से रखी है। इस लेख को सभी को पढ़ना भी चाहिए और मंथन भी करना चाहिए। बहुत-बहुत धन्यवाद इस लेख को साझा करने के लिए ,सादर नमन
आपका बहुत बहुत आभार कामिनी जी। सच में इतने कठिन दौर के बावजूद यदि हम नहीं सीखे तब यकीन मानिये कि इसके बाद वाकई कोई और अवसर नहीं आएगा। प्रकृति सहेजी जानी चाहिए एक जिम्मेदारी समझकर...क्योंकि भविष्य इसके बिना कुछ नहीं होगा।
ReplyDeleteवाह!खूबसूरत आलेख ।वाकई ,माँ प्रकृति को सहेजना हम सभी का नैतिक कर्तव्य है ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका शुभा जी।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteहमने एक मीटर स्कावयर के एक हेक्टेयर के तीन सौ, चार सौ जलछिद्रों को बनवाया, पोंड बनवाए ताकि बारिश का पानी जलछिद्रों में पडे़ और ये सीधे धारों को भी सींचे, मैं आपके संज्ञान में ले आना चाहता हूं कि पांच छोटी नदियों का वापसी जन्म हुआ और 126 धारे तैयार हुए, हमने सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की है, खास तौर पर वन विभाग को। इसके कुछ परिणाम दिखाई देने शुरू हो चुके हैं आशा है आने वाले समय में चार पांच साल में बेहतर परिणाम हमारे पास होंगे।
ReplyDeleteबहुत ही सराहनीह प्रयास.... सरकार को इस पर अवश्य संज्ञान लेना चाहिए और इस सार्थक प्रयास में अपना योगदान भी देना चाहिए।
बहुत ही सारगर्भित एवं सार्थक लेख।
सुधा जी बहुत आभार आपका...। ऐसे प्रयासों पर सरकार को ध्यान देना चाहिए...।
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक लेख । प्रकृति के निकट रहने पर ही लाभान्वित हो सकते हैं ।विकास से ज्यादा जरूरी है समृद्धि ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख । आभार ।
जी बहुत आभार आपका संगीता जी...।
Deleteसुन्दर आलेख। प्रकृति के साथ मिलकर चलेंगे तभी मनुष्यजाति बची रहेगी। अगर बुरा न माने तो एक सलाह देना चाहूँगा। अभी टेक्स्ट का फॉण्ट काफी छोटा है। इसे अगर थोड़ा बढ़ा कर दें तो लेख पढ़ने में आसानी होगी। आभार।
ReplyDeleteजी विकास जी बहुत आभारी हूं आपका...। आपके कहे अनुसार फांट साइज बेहतर कर दिया है...आभार आपका।
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