कल्पना कीजिएगा कि आप कोई मूवी देख रहे हैं और उसमें कटे हुए सिर वाले मानवों की कोई बस्ती है और वहां किसी सिर वाले व्यक्ति को रहने और खुश रहने का आदेश दे दिया जाता है और वहां उसे सर्वसुविधायुक्त महल भी सौंप दिया जाता है बस वहां कोई सिर वाला इंसान नहीं होगा, कोई बोलने वाला इंसान नहीं होगा, कोई भावनाओं को व्यक्त करने वाले चेहरे नहीं होंगे, तब क्या और कैसे होगा, क्या वह सिर वाला व्यक्ति उन कटे सिर वालों के समाज में खुश रह पाएगा, मुस्कुरा पाएगा, खुश हो पाएगा, सपने देख पाएगा, अपने बच्चों को लाकर वहां बसा पाएगा, उनके भविष्य के सपने उन्हें दिखा पाएगा...सोचियेगा कि कटे सिर वाले शरीर के समाज की कल्पना मात्र ही हमें इतना विचलित कर सकती है तब सोचियेगा कि निर्दयी होकर हमारे समाज में जंगल काटे जा रहे हैं और उन्हें काटने के लिए बेतरतीब निर्णय भी लिये जा रहे हैं। हरे वृक्षों का सिर कटा जंगल हमें चीखता हुआ प्रतीत नहीं हो रहा है, उसकी चीख सुनाई नहीं दे रही है।
मूंदिये आंखें, फेर लीजिए मुंह दूसरी ओर
सोचियेगा कि सिर कटे वृक्षों पर कौन जीवन खिलखिलाएगा ? कौन पक्षी आएगा, कौन मोर नाचेगा, कौन राहगीर छांव पाएगा और कौन सा पौधा उस जंगल में वृक्ष बनने का साहस दिखा पाएगा। बात चुभने वाली है लेकिन ये सच है कि हम जंगल को जिस स्थिति में पहुंचा रहे हैं वहां से जीवन की हर हद समाप्त होती नजर आ रही है, बेशक आप खामोश रहिये क्योंकि जंगल से किसी का कोई सरोकार नहीं है क्यांकि यदि कुछ महत्वकांक्षी योजनाओं ने जंगल उजाड़ भी दिया तब भी हम मनुष्यों की सेहत पर क्या फर्क होगा, हमारा घर सुरक्षित है, हमारे शहर तक कोई दर्द नहीं पहुंच रहा है लेकिन ये संकट को ठीक करीब आता देख आंखें मूंदने जैसा है, यकीन मानिये कि संकट दरवाजे से कुछ दूरी पर है...मूंदिये आंखें, फेर लीजिए मुंह दूसरी ओर, उलझा लीजिए अपने मन और दिमाग को दूसरी जगहों पर, अबकी संकट श्वास का आएगा और तब आप उससे निपट भी नहीं पाएंगे।
प्रकृति भी कभी बाजार नहीं हो सकती
यकीन मानिये जहां भी जंगल को कोई एक वृक्ष भी कट रहा है तब आप तक बेशक की चीख न पहुंचे लेकिन ये भी है सच है कि ऑक्सीजन भी नहीं पहुंचेगी...तब भागते रहियेगा सिलेंडर सर पर रखकर हांफते हुए इस बाजार के पीछे....ये क्रूर बाजार आपको हांफता देख खुश होगा क्योंकि इसी में उसे फायदा नजर आता है, बाजार कभी भी प्रकृति नहीं हो सकता और प्रकृति भी कभी बाजार नहीं हो सकती...।
श्वास के बदले हीरे
तसर आता है मुझे तो कि आखिर कोई सरकार केवल हीरों के लिए किसी जंगल को उजाड़ने का सोच भी कैसे सकती है, कैसे आप ये सोच सकते हैं कि हीरों के लिए असंख्य जिंदगियों को दांव पर लगा सकते हैं, कैसे आप असंख्य मनुष्यों के लिए एक भविष्य का संकट आकार दे सकते हैं, कैसे आप अंजान बनकर उस निर्णय के बारे में सोच सकते हैं जिसके बाद एक गहरे संकट का आना तय है। छतरपुर के बक्सवाहा जंगल में वृक्षों के बदले हीरे, जीवन के बदले हीरे, भविष्य की श्वास के बदले हीरे, उम्मीद और भरोसे के बदले हीरे...क्या कीजिएगा और कितने दाम के होंगे वे हीरे...कहीं जाकर तो उनकी कीमत खत्म हो जाएगी और सोचियेगा कि सवा दो लाख वृक्षों का एक जंगल जो असंख्य जीव- जन्तुओं के साथ हम मनुष्यों के जीवन की रीढ़ बना हुआ है, रीढ़ पर प्रहार करना अच्छा नहीं है, ये तमीज नीति नियंताओं में स्वतः ही होनी चाहिए।
कैसा निरीहपन
अबकी उस जंगल को बचाने के लिए प्रतिबद्व हो जाईये क्योंकि आज नहीं जागे तब यकीन मानिये कि कल वही सिर कटे, शरीर कटे वृक्षों का ठूंठ वाला जंगल आसपास पसरा होगा, कैसे हम अपने बच्चों से कह पाएंगे कि हमें पता था कि कोई जंगल केवल इसलिए काट दिया जा रहा है कि उसके नीचे हीरे थे और हम खामोश रह गए, कैसे हम अपने बच्चों की नजरों का सामना कर पाएंगे कि वह कहेंगे नहीं लेकिन हमें कसूरवार करार दे चुके होंगे कि आप हमारी घुटती श्वास वाले उन निर्णयों पर भी क्यों नहीं चीखे, कैसी खामोशी थी और कैसा निरीहपन। ये मानवीयता तो कतई नहीं है। ये जंगल यदि हीरों के लिए काट दिया जाता है और उस दौर में जबकि हाल ही में हमने मेडिकल ऑक्सीजन का एक बड़ा और गहरा संकट देखा है, भोग रखा है? हम जानते हैं कि हम प्रकृति की ऑक्सीजन की सप्लाय की बराबरी कभी नहीं कर सकते, लेकिन संकट आ धमका और यदि आज ये जंगल कटने से नहीं रोका गया और यदि ये काट दिया गया तब यकीन मानिये कि कल कोई जंगल नहीं बचेगा और हम किसी जंगल पर उसकी सुरक्षा पर अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पाएंगे क्योंकि हारे हुए समाज का मिटना तय हो जाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हम इस मुददे पर पूरी ताकत से जागेंगे और अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएंगे क्योंकि हीरे कभी भी मायूस जिंदगी वाले समाज में शोभा नहीं देते।
सुनिये सरकार---
सुनिये सरकार, आखिर कैसे उन हीरों की चाहत आपको इतना निष्ठुर बना सकती है कि आप जंगल को काटने के निर्णय की ओर अग्रसर होने की सोचने लगे...उम्मीद की जानी चाहिए सरकार से कि वह ये अंतर समझेगी कि श्वास और चमक में से पहले श्वास चुनी जाती है, आप हीरों से श्वास नहीं ले सकते लेकिन वृक्षों से आप उन हीरों की चमक से खरीदी गई किसी भी जिंदगी से बेहतर जिंदगी जी सकते हो...। सोचियेगा कि ये समय निर्णय लेने का है...।
6 Comments
श्वास और चमक में से पहले श्वास चुनी जाती है, आप हीरों से श्वास नहीं ले सकते लेकिन वृक्षों से आप उन हीरों की चमक से खरीदी गई किसी भी जिंदगी से बेहतर जिंदगी जी सकते हो...।
ReplyDeleteबिल्कुल सही है।
जी एकदम सच है ज्योति जी। ये दौर समझने का है क्योंकि सुधार की शुरुआत अभी हो सकती है, संभावना बाकी है अभी। आभार आपका
Deleteपर्यावरण से अत्यंत ही गंभीर और सार्थक सराकोर वाली रचना। 1981 से पलामू के जंगलों का मुंडन होते देखता आ रहा हूँ। दीर्घ अलकों वाली सघन कुंज लताओं में लिपटे जंगल अब ठूंठ होते नज़र आ रहे हैं और मानव जाति एक आसन्न संकट की ओर उन्मुख।
ReplyDeleteकौन जगाएगा और किसे जागना है, समझना तो सभी को है, ये ऐसा विषय है जिस पर सभी को गहन हो जाना चाहिए समय से। देर होगी तो मुश्किल विकराल चेहरा लेकर सामने आएंगी। आभार आपका विश्वमोहन जी एक गहन प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteपेड़-पौधों की उपयोगिता न समझ कर हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं।
ReplyDeleteपर्यावरण संरक्षण प्राणी जगत के जीवन का अहम् हिस्सा होना चाहिए। इस कर्तव्य की अनदेखी करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है । चिंतनपरक सृजन ।
जी सच कहा आपने लेकिन हम इस अज्ञानता की चादर को जितनी जल्दी हो उठाकर फैंक देंगे उतना ही हम सभी के लिए श्रेयस्कर होगा। आभार आपका मीना जी
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