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वो सफर (लघुकथा)


 

सफर आरंभ हुआ, विवाह के बाद पहली बार पति के साथ मायके लौटती सुधा। पूरे सफर पति के हाथ को अपनी मुट्ठी की गर्माहट देती सुधा जब भी अवसर मिलता पति के चेहरे को निहार लिया करती। पूरे रास्ते दोनों कुछ नहीं बोले केवल एक-दूसरे को देखते और मुस्कुरा देते। 

सफर में रात हुई और तब खामोशी और गहरी हो गई। दोनों बार-बार न जाने कितनी बार एक दूसरे को निहारते और ठंडी सांस लेकर अहसासों को गहरे मन में उतार रहे थे। आंखें बोलती रहीं और आंखें ही जवाब देती रहीं। चौबीस घंटों के सफर का आखिर पढ़ाव आ पहुंचा, सुबह हो चुकी थी। दोनों की आंखों में नींद थी।

आखिरकार आखिर पढ़ाव की खत्म होने को आया, लेकिन शब्द अब भी नहीं थे। दोनों घर के दहलीज पर थे, सामने सुधा के माता और पिता थे दोनों उन्हें देखते हुए चरणों में झुक गए लेकिन तब भी केवल आंखें ही बात कर रही थीं, सुधा ने आंखों से इशारा किया कि अब ये आंखों की भाषा और बोली को विराम देते हैं और शब्दों पर लौटना होगा। सुधा की मां ने पूछा कोई तकलीफ तो नहीं हुई सफर में...। सुधा बोली सफर...हां सफर...अभी खत्म ही कहां हुआ, खत्म क्यों हो, अभी तो आरंभ हुआ है...वो बुदबुदा रही थी कि मां दोबारा बोली क्या मन में ही बात कर रही है, सुधा बोली हां सफर बहुत अच्छा था एकदम शांत और गहरा सा। मां हंसती हुई रसोई में चली गई अब शब्दों की बारी थी। पति ने कहा सुधा ये बोलना जरुरी है क्यों न ये खामोशी यूं ही बनी रहे और आंखें ही बात करती रहें...। सुधा हंसते हुए बोली मां और पिता उस बोली को नहीं समझ पाएंगे उनसे बात करनी ही होगी, रही बात हमारी तो हम इन्हीं आंखों से ही काम चला लेंगे....। दोनों मुस्कुराने लगे और आंखें कहने लगीं, सफर अभी कहां खत्म हुआ है...। 

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6 Comments

  1. हृदयग्राही कथा...


    हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
    डॉ. वर्षा सिंह

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  2. बहुत आभार वर्षा जी...।

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  3. सफर अभी ख़तम कहाँ हुआ है---
    सच में शब्दों की कारागीरी कमाल है। सुंदर लघु कथा संदीप जी। हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. बहुत आभार आपका रेणु जी...। बहुत कुछ मन का सा होता है ये भी कुछ वह ही है।

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  4. सुन्दर आर सारगर्भित प्रस्तुति।

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    1. आभारी हूं आपका आदरणीय शास्त्री जी।

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