सोचिएगा कि सुबह उठे और दरवाजा खोलते ही तेज आग की लपटें आपको छू जाएं...आप क्या करेंगे... दरवाजा बंद कर देंगे। सोचिये कि ऐसी आग में जब जंगल कई दिनों तक झुलसते हैं तब वन्य जीव कैसे रहते होंगे...। दरअसल हम नादान नहीं हैं लेकिन आग से खेल रहे हैं।
आखिर जंगल कब तक है ?
तापमान चढ़ रहा है। उस जंगल में वन्य जीवों के मन की बात लिखूं तो आपस में बतियाते अवश्य होंगे कि अब कितना जंगल बचा है और कितना जीवन...पता नहीं। जंगल है तो अंदर से वीरान, सूखा, जला हुआ, बिना फल वाला, बिना छांव वाला, बिना सुरक्षा वाला, हर वक्त भय देता हुआ, आदमी की लालची नज़रों में चढ़ा...आखिर जंगल कब तक है।
जीवों और जंगल की चीखें सुनाई अवश्य देंगी ?
हर आदमी अंदर जंगल हो गया है, जंगल ओढ़कर फिर रहा है, आदमी जंगल मिटाकर शहर बनाना चाहता है लेकिन असंख्य जीव जंगल खोकर, जान खोकर हमारी क्रूरता का इतिहास लिख रहे हैं। सूखे और तपे भविष्य में इतिहास होगा वह बेशक पढ़ा न जा सके लेकिन हमें हर वक्त वन्य जीवों और जंगल की चीखें सुनाई अवश्य देंगी।
कल हम चीख रहे होंगे ?
आग में जंगल नहीं हम दहक रहे हैं..। दहकते रहिए और अंजान रहिए क्योंकि आज बेशक कोई सवाल नहीं हैं लेकिन कल हम चीख रहे होंगे...। आधे जले और आधे सूखे ...।
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