युद्ध किसे चाहिए, क्यों चाहिए और क्यों आवश्यक है... युद्ध किसके लिए...जल, जमीन, आसमान या कुछ और...। जब जब युद्ध हुआ मानवता कुचली गई...। जल, जमीन और आसमान पर अधिकार कैसा... क्या इसे इंसान ने बनाया है यदि हां तो कैसे...? और नहीं तो हरेक वह व्यक्ति जो युद्ध पर खिलखिलाता है वह प्रकृति का दोषी है... क्योंकि कुचली प्रकृति भी जाती है... आग का गोला धरती के सीने पर भी गिरता है, झुलसती वह भी है...। किसने अधिकार दिया कि वृक्ष और धरा उजाड़ दी जाए, नदियां रोक दी जाएं, आसमान पर पहरा लगा दिया जाए...।
मानव के स्वार्थ की पराकाष्ठा देखिए कि जल, जमीन और आसमान पर अधिकार जमाने वाला वह प्रकृति के प्रति अपने अपराधों पर कुछ नहीं कहता। किसने अधिकार दिया कि जमीन दुनिया में विभाजित हो, आसमान और नदियों पर एकाधिकार हो...यह तय प्रकृति ने नहीं किया है..मानव ने किया है...। जो मानव का है ही नहीं उस पर उसका कैसा आधिपत्य... फिर कैसा युद्ध... लड़ाई... मौतें... तानाशाही... कारोबार... सनक...? मेरी समझ में नहीं आती...। प्रकृति का दर्शन समझें तो वह हर पल जानती है, समझती है... फिर एक दिन वह अपना तरीका अपनाती है... जिसे हम प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत कहते हैं... उसमें तिनके सा उड़ जाता है घमंड... सनक और पागलपन...। यदि हम ही सर्वशक्तिमान हैं तो रोक कर दिखाएं प्रकृति के क्रोध और रौद्र को...।
जल, जम़ीन और आसमान... प्रकृति के हैं... हमारा केवल ज़मीर है... जो हमारे पास नहीं है...। हममे से हरेक प्राकृतिक न्याय को मानता है... फिर भी युद्ध चाहिए... महत्वाकांक्षा हमें पागल और दंभी बना रही है... तभी तो बुद्ध की जगह दुनिया का कुछ सनकी नेतृत्व हथियार, सनक और कारोबार चुनने लगा है... उन मासूम बच्चों की मौत पर परिजन की सिसकियां सुनने का प्रयास कीजिए क्योंकि वह सदियों तक गूंजती रहेंगी... उनका क्या कसूर था...? मन दुखी है क्योंकि दुनिया भाग रही है उस अंधे कुएं की ओर जहां केवल एक अट्टहास करता स्थायी सन्नाटा है... और सनक से हारी खूबसूरत दुनिया के उजड़े से पदचिह्न...।
आखिर क्यों आमादा हैं खूबसूरत प्रकृति को उजाड़ने पर...। जमीन के टुकड़ों पर लड़ाई... काश ज़मीर की दरकन सुन पाती...। मैं बुद्ध को चाहता हूँ... क्योंकि शांति को चाहता हूँ... क्योंकि बुद्ध प्रकृति में एक मौन साधना हैं... विचार हैं... जिन्हें हमने बिसरा दिया है...।
2 Comments
संदीप जी,बहुत ही मार्मिक लेख लिखा है आपने।युद्ध कोई भी करे,घायल प्रकृति ही होतीहै। मानव दुनिया का सबसे महत्वाकांक्षी और स्वार्थी तत्व है।मानव हठ ने ही नये-नये रूप बदलकर युद्ध को आमंत्रित किया है।रावण,दुर्योधन या सम्राट अशोक हो सबने अपने छद्म अहं की पूर्ति के लिए युद्ध किये और मानवता को क्षत-विक्षत किया।आज बड़ी बड़ी इमारतें बारूद के धूएँ से अटी पड़ी हैं।बच्चे और औरतें बिलख रहे हैं।विज्ञान ने युद्ध को और भी भयावह बना दिया है।।क्या करें कुछ समझ नहीं आता,बस प्रार्थना कर रहे हैं।🙏🌹🌹🙏🙏
ReplyDeleteसंदीप भाई,इंसान इतना स्वार्थी क्यों होता है यह बात समझ मे नहीं आती। क्यो अपने अंहकार की शांति के लिए वो मासूमो को बिलखता छोड़ता है? क्यो उसे प्रकृति का विनाश समझ मे नही आता? ये सब अनसुलझी पहेलियां है। काश दुनिया के हुक्मरानों को ईश्वर कुछ संवेदनशील बनाए।
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