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अपने से बात तो कीजिए

पत्ते गिरते हुए भी मुस्कुरा रहे थे
मैं आदमी होकर भी डरा सा हूँ। 

जगजीत जी की गज़ल सुन रहा था... 
कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों है...?
शब्द क्या हैं, पूरी किताब लिखी जा सकती है... वाकई ये आसान तो नहीं है। गुबार ही गुबार हैं... मन बैठा जाता है कई बार, कौन पूछता है और कितना पूछता है और क्या बताया जाए और कितना कहा जाए...। शब्दों और विचारों के बीच कहीं कोई अनुबंध है? शायद है तभी तन्हा होकर केवल मन ही मथता है, मन की जमीन, मन का आसमां... आखिर कोई कैसे छू  सकता है किसी के विचारों का आसमां। तन्हा हो जाना एक अवस्था है लेकिन इसका आध्यात्म से गहरा रिश्ता है। तन्हा हो जाना बिखराव भी लाता है और समग्र भी बनाता है। तन्हा होकर मौन हो जाना आपको कई कतरों में बिखरने पर मजबूर कर देगा, लेकिन हम बात करें अपने आप से, नित्य वार्तालाप जरूरी है अपने आप से...। सच यह है हम अपने से ही ईमानदार हैं और अपने से ही बगावत कर जाते हैं। हम जीतना जानते हैं तभी हम खामोश हो जाते हैं, एकांकी होना हमेशा ही खराब नहीं होता लेकिन केवल एकांत ओढ़कर खो जाना और अपने से कोसों दूरी बना लेना हमारी हार है...। तन्हा होकर हम साथ और करीब आ सकते हैं, कोई कोलाहल नहीं होता, एक श्वेत आकाश हम गढ़ सकते हैं... केवल अपने से बात ही तो करनी है, 

बहुत शोर है दुनिया में कि हम फिर भी हंसते हैं, दुनिया दीवानी है या हम ही फकीर हैं...। यह रिश्ता अपने आप से हमें सच और केवल सच दिखाता है..।

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