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पृथ्वी का तापमान

 


मैं जानता हूं कि जीवन में सकारात्मकता सबसे महत्वपूर्ण होती है, लेकिन यहां हालात वैसे नहीं हैं, हम केवल उत्सवी आनंद में जीने वाली विचारधारा के होकर रह गए हैं। हमें एक ही दिन खुश होना है, एक ही दिन परिवार के साथ बैठना है, एक ही दिन हंसना है, एक ही दिन भरोसा दिखाना और निभाना है और एक ही दिन इस प्रकृति की भी चिंता करनी है। 

ये हमारी आदत का हिस्सा हो गया है, तपती हुई धरती अगर यूं ही तपती रही तो उसे आग का गोला हो जाने से कोई नहीं रोक पाएगा। आग का गोला हो जाने के लिए उससे लपटें उठनी जरुरी नहीं हैं, यदि पक्षी ताप को नहीं सह पा रहे हैं वे असमय मारे जा रहे हैं तो पृथ्वी आग का गोला हो रही है, जमीन पर दरारें अपना कद गहरा कर रही हैं मतलब पृथ्वी आग का गोला है, पक्षी छांव तलाश रहे हैं, वृक्ष सूखकर केवल ढांचा रह जा रहे हैं, क्रम टूट रहा है, बारिश दरक रही है, ठंड हठी हो गई है, तूफान बेकाबू हो रहा है, गर्मी अपनी जिद ठान बैठी है, तापमान के बढ़ने की चिंता माथे पर है लेकिन हम केवल एक ही दिन विचार करेंगे, एक ही दिन कार्य करेंगे, मैं जानना चाहता हूं रोज क्यों नहीं, हर पल, हर घंटे, हर सुबह, हर मौसम में, हर उत्सव में प्रकृति और उसकी चर्चा क्यों नहीं...। 

दो कारण हैं क्योंकि डरते हैं कि जो रहा है उसे हम नहीं सुधार पाएंगे, दूसरा ये कि हम तो अपनी सोचें सुधार पर कोई और सोच लेगा...। ओह विचारों में कितने गहरे जाले लगे हैं, जाले भी ऐसे जो हमें खुद अपने आप से मिलने नहीं दे रहे हैं, हमारी सच्चाई खुद अपने आप तक नहीं पहुंच पा रही है। सोचिये अपै्रल के आरंभ में ही मप्र के कुछ हिस्सों में तापमान 45 तक पहुंच जाता है। अभी भी हालात यह हैं कि देश के अनेक हिस्सों में बारिश न होने से तापमान कम नहीं हुआ है। 

मैं पूछना चाहता हूं तापमान बढ़ रहा है तो यूं ही बढ़ता जा रहा है, जब छोटा था तब एक चक्र था, ठंड, गर्मी और बरसात, अब एक एक दूसरे से धक्का मुक्की में क्यों हैं, तूफान पहले क्यों बेबाक नहीं हो रहा था, अब जिद क्यों ठान रहा है, कभी नहीं सोचा था कि अपने बच्चों के बचपन तक चिंता गहरी हो जाएगी। 

जबसे समझना आरंभ किया है अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं जाने दे रहा हूं।  कौन रोकेगा इस धरती को गोला हो जाने से....कोई नहीं आएगा और कोई जादू भी नहीं होगा, ये यूं ही तपती जाएगी और एक दिन हम सभी इसमें होम जाएंगे, पक्षी कमजोर हैं, मासूम हैं इसलिए वे पहले मुसीबत से सामना कर रहे हैं, इसके बाद हमारी बारी है...। सुधार का कोई शार्टकट नहीं होता, सुधार के लिए पौधे रोपने होंगे, उन्हें ईमानदारी से अपने बच्चों की भांति परिपक्व बनाना होगा...और कोई रास्ता नहीं...। जाग जाएं सवेरा हम बना सकते हैं वरना स्याह दिन तो हमारी ओर खिसक ही रहा है....।

बुजुर्ग यदि केवल घर पर हैं तो वे बच्चों को साथ लेकर इस कार्य को बेहतर तरीके से कर सकते हैं, पूरा परिवार माह में एक पौधा रोपने की जिम्मेदारी ले और उसे पोषित भी करे...। ये प्रकृति संरक्षण का अभियान है, बेहतर समझें तो अपनी बात लिखकर इसे शेयर अवश्य करें..।


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7 Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-8-21) को "बाँसुरी कान्हां की"(चर्चा अंक- 4171) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा


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  2. सुधार का कोई शार्टकट नहीं होता, सुधार के लिए पौधे रोपने होंगे, उन्हें ईमानदारी से अपने बच्चों की भांति परिपक्व बनाना होगा...और कोई रास्ता नहीं...। जाग जाएं सवेरा हम बना सकते हैं वरना स्याह दिन तो हमारी ओर खिसक ही रहा है....। यह बात हम सभी को समझनी होगी।

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  3. वृक्षारोपण और उनका संरक्षण प्रकृति में आए बदलावों में संतुलन
    स्थापित करने में कारगर होगा यह बात आपने बहुत सरलता और सहजता से समझाई है । बहुत सुन्दर और प्रेरक सृजन ।

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  4. जी सही है , सुधार का कोई शार्टकट नहीं होता । विचारणीय आलेख । सादर बधाइयाँ ।

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  5. सहमत हैं अक्षरशः।
    कुछ शॉटकट्स के लिए दूरगामी परिणाम भुगतना पहले से तय रहता है हम सबकुछ जानकर भी अपने स्वार्थ के लिए जोखिम लेते है और संकट को आमंत्रित करते हैं।

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  6. मानव की करतूतों का परिणाम पक्षी, प्राणी भुगत रहे हैं और प्राकृतिक विपदाओं के रूप में मानव उनकी दुःखी आत्माओं के शाप का शिकार हो रहा है। पेड़ भी लगाएँ तो कहाँ ? आसपास तो जगह नहीं बची और घर से दूर कहीं लगा भी आएँ तो उनकी देखभाल कैसे करें ? हम अपने स्तर पर और क्या कर रहे हैं, इस पर विचार तो करना होगा। गहन विचार करने को बाध्य करता लेख।

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  7. बहुत ही सार्थक लेख है,ये सिर्फ चेतावनी नहीं हम सब की प्रतिबद्धता होनी चाहिए ।
    नमन🙏

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