लघुकथा
अक्सर होता ये था कि पूरे साल में गर्मी का मौसम कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था क्योंकि घर के सामने रास्ते के दूसरी ओर नीम का घना वृक्ष था और उसकी छांव में गर्मी का अहसास ही नहीं होता था, वह वृक्ष और उसकी पत्तियां उस गर्मी को, तपिश को सहकर छांव पहुंचाया करती थी और तो और दादी के नुस्खे के क्या कहने किसी को चोट आती तो वह नीम की छाल निकालकर घिसती और पैर पर लगा देती, बस अगले दिन सब ठीक हो जाया करता था। रोज की तरह आज भी बंशी ने अपना दरवाजा अपने आप पर झुंझलाते हुए खोला और बोला ये रात तो काटनी मुश्किल है, घर में कोई कैसे काट सकता है इतनी परेशानी वाली रात। इससे दिन अच्छा है कम से कम छांव तो मिलती है, हवा तो मिलती है, धन्य हो नीम....इतना कहते ही उसकी नजर सामने कटे हुए नीम के वृक्ष की कटी हुई भुजाओं पर गई और माथे पर हाथ रखकर दरवाजे से टिककर रह गया। मन ही मन बुदबुदाया ये क्या, ये कौन काट गया और क्यों...? वह परेशान सा पास वाली दुकान के मालिक रामचंद्र के पास पहुंचा और बोला रामू ये वृक्ष कौन काट गया , रामचंद्र बोला कल कुछ अधिकारी आए थे कह रहे थे कि यहां यह मार्ग संकरा है इस पर काम होना है और ये वृक्ष बाधा बन रहा था इसलिए इसे काटना जरुरी है, वह इसके बदले वो देखो एक पौधा लगा गए हैं...और कह गए हैं कि उसे पानी देते रहना, एक दिन वह भी वृक्ष हो जाएगा....। गुस्से से चीखता हुआ बंशी बोला हम उसे अंकुरित करेंगे ये काट जाएंगे, फिर हम उसे अंकुरित करेंगे ये फिर काट जाएंगे...आखिर ये कब समझेंगे कि एक पौधे को वृक्ष बनने में कितना समय लगता है, कितनी दोपहर और उसकी तपिश, कितनी बारिश, कितने तूफान झेलकर वह वृक्ष बनता है और उस घनेरी छांव का क्या...वह रोता हुआ कभी वृक्ष को देखता तो कभी उस पौधे को...और कभी उस दोपहर वाली झुलसन को जो अब उसे कई साल सहनी थी...। सिर पर हाथ रख बंशी लौट आया और घर से एक लोटे में पानी लाकर पौधे को अर्पित कर दिया...उसके चरण छूकर बोला हम तुम्हें वृक्ष अवश्य बनाएंगे क्योंकि तुम हमारे लिए बहुत जरुरी हो...। तुम हमारा जीवन हो...।
19 Comments
इस बार यथासंभव पेड़ लगा कर उसी रिक्तता को भरने के प्रयास में हैं हम सब।
ReplyDeleteजी पाण्डेय जी बहुत आभार आपका...ये प्रयास सभी करें और सभी को करने चाहिए क्योंकि हमें अब और कोई संकट सिखाने आए उससे तो बेहतर है कि हम स्वयं अंदर से संकल्प लेकर तैयार हो जाएं...आभार आपका।
Deleteपेड़ो का महत्व बतलाती सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteहर बार गर्मियों में सैकड़ों ऐसे सरकारी उपक्रम होते हैं विभिन्न जगहों में ! पर बस खानापूर्ति के लिए ! गड्ढा खोदा, पौधा रोपा, कागजों में दर्ज किया और हो गई इतिश्री ! फिर उसकी सुध लेने कोई नहीं आता ! ये तो आमजन, साधारण लोग ही हैं जिनके कारण जगह-जगह हरियाली दिखती पनपती है
ReplyDeleteआप सच कह रहे हैं, ये कार्य और ये सुधार सरकारी मशीनरी के बस की बात नहीं है इसमें आम जनता को अपनी पूरी तरह से सहभागिता करनी होगी। आभार आपका गगन शर्मा जी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।
Deleteबहुत सुन्दर सीखप्रद लघुकथा ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका मीना जी।
ReplyDeleteमार्मिक,बंसी की तरह हमें ही समझना होगा और हमें ही इनकी रक्षा भी करनी होगी,स्वार्थी नियम-कानून नहीं समझेंगे,बहुत ही खास विषय की और इंगित करती लाज़बाब लघु कथा,सादर नमन आपको संदीप जी
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी...। प्रकृति पर हम जितनी जागरुकता ला सकते हैं हमें लानी चाहिए क्योंकि हमारे हाथ ईश्वर ने लेखनी की ताकत दी है ये सभी के पास नहीं होती। आभार आपका।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteवृक्ष मनुष्य नहीं होते हैं। कट लेते हैं। सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 13 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteकथा के रूप में एक सत्य एक निष्ठा एक संकल्प की और अग्रसर करता आदर्श लेखन,
ReplyDeleteसरकारी ढुलमुल नीतियों की पोल खोल रही है कहानी वहीं हमें अपनी प्रतिबद्धता का मार्ग भी दिखा रही है ।
बहुत सुंदर कथा ।
सुदर हरी-भरी लघुकथा!
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