सुबह के साढे चार बजे थे, मैं हरिद्वार के स्टेशन पर अवाक सा देखता रहा दीवार पर बनाई गई इस पेटिंग को देखकर। कलाकार की गहराई और कार्य को देख रहा था, अकेला और बहुत अकेला। भीड बहुत थी, आवाजाही के बीच मैं बहुत अकेला था उस कलाकार की तरह जो उसे बना चुका था और जो उसे बनाते समय जिस एकांत में जी रहा होगा। सोच रहा था कि कलाकार किसी दीवार पर वृद्वा की पथराई आंखों में जब आंसुओं को उकेर रहा होगा तब उसका मन भीगा हुआ रहा होगा, संभव है कोई वृद्वा या अपना सा कोई वाकया उसे छूकर गुजर गया हो। उस दीवार पर रंग भी थे, लेकिन आंसुओं का सैलाब भी। मैंने छूकर देखा कि दीवार भी क्या पसीजी हुई थी, पाया कि उस आंसुओं वाली जगह पर बहुत कोलाहल  था। आप देखियेगा इस आर्ट में वृद्वा की आंखें...आपको मेरी तरह ही अनुभूति होगी। मैं उस कलाकार को महसूस करने लगा कि आखिर इतना दर्द उसके मन में था या वह यूं ही उकेर गया, क्योंकि दर्द उकेरना आसान नहीं होता क्योंकि उसके उभरने पर मन में गहरी टीस भी उभर आती है अक्सर। आखिर क्या रहा होगा उस कलाकार के दिमाग में आखिर उसने उस उम्र की उस महिला को उस दीवार पर बसाते हुए क्या सोचा और कितनी देर वह उसके दर्द को जी सका होगा। वृद्वा की उम्र और आंखें अक्सर आंसुओं को सोख लेती हैं लेकिन यहां आंसू आकार लेकर भी सूखे नहीं, वरन दीवार ने दर्द को जगह दे दी अलबत्ता वह भी दर्द से पसीज गई लेकिन खामोश हो गई। मैं देखता रहा, लोग आते रहे जाते रहे लेकिन किसी ने उस वृद्वा और उस आर्ट की ओर नहीं देखा, दर्द मैं और वह कलाकार साथ लेकर वहां से लौट आए, दीवार पर वह वृद्वा अब भी है, आंसू भी हैं, वे इतने जीवंत और गहरे हैं कि अपनी ही कहते हैं, हम उनके आगे कुछ कह नहीं सकते...। मेरी आंखें कलाकार को खोजती रहीं, अब तक खोज रही हैं कि आखिर ये तस्वीर जिसने भी बनाई है, दीवार पर उकेरी है उसने उस वृद्वा के आंसुओं और दर्द का आखिर क्या किया...जानना चाहता हूं...?