अब न झरोखा है, न रोशनी, न ही उम्मीद, न ही कोई खिलखिलाती पत्तियों वाले नवयोवन से मदमस्त वृक्ष...। अब बस मकान है, मकानों के बीच फंसा हुआ, जबरदस्ती उलझा हुआ, दबा-कुचला सा...। महानगर में प्रकृति और उसे देखने का उत्साह वेंटीलेटर पर है, सभी को तरक्की चाहिए, वृक्ष किसी को नहीं चाहिए, भागती हुई जिंदगी में पसीने से लथपथ अवस्था में छांव भी चाहिए लेकिन वृक्ष नहीं चाहिए...ओह वो झरोखा आखिर कहां खो गया जो हवा नहीं बल्कि जिंदगी की ताजगी साथ लाकर मकान को घर बना जाया करता था...अब मकान गर्म में ठंडे हैं लेकिन बैचेन और बीमार...थके हुए पस्त से..। मैं देख रहा हूं शहरों और महानगरों में तो मकानों में जैसी प्रतिस्पर्धा चल रही है, गलियां एक दूसरे पर हावी होना चाहती हैं, मकानों की तो कोई बखत रही नहीं क्योंकि महानगरों में मल्टी जो बनने लगी हैं, महानगर में बसाहट की यदि व्याख्या करना हो तो मैं यहीं कहूंगा कि इस दालान में अब इंसान कहां, यहां तो भीड रहती है, जज्बात कहां, यहां तो मौकापरस्ती रहती है..। चलिये ये तो महानगरों की अपनी जिंदगी है जो उसने खुद चुनी है...। छोटे शहर भी महानगर हो जाना चाहते हैं क्योंकि उसके रहवासी चाहते हैं कि वे भी महानगर जैसे ही नजर आएं...अब रह गए गांव...। गांव अब भी खुले हैं, हवा है, खेती है, वृक्ष हैं, अपनों के लिए समय है, चौपाल है, चौपाल पर सुख-दुख साझा हो रहे हैं, उम्मीद है...। मैं यहां किसी पर आक्षेप नहीं लगा रहा हूं लेकिन इतना अवश्य पूछना चाहता हूं कि आखिर जिंदगी इतनी तंगहाल हो कैसे गई...। हमने घर को कैदखाने जैसा बना लिया है, हमें हवा से अधिक सुरक्षा चाहिए, छोटे घरों की छतें अब बेमतलब साबित हो रही हैं, क्योंकि वहां हवा नहीं है, शहरों और महानगरों में हरियाली केवल दालानों और गमलों तक सीमित क्यों होती जा रही है...। खैर, मैं तो इतना ही कहना चाहता हूं घर में कोई ऐसा झरोखा अवश्य रखना जिससे आप उस प्रकृति को देख सको, निहार सको और वो उस झरोखे आपके जीवन में बिना संकोच के प्रवेश कर जाए..। पर्वतीय हिस्सों में जो घर बनते हैं उनकी खासियत है कि वे अपने घर खुले-खुले बनाते हैं...। सोचिये उस झरोखे के बारे में जो हमें जिंदगी देता है, उम्मीद देता है...लेकिन महानगर में ये झरोखे भी नहीं है, सबसे अहम बात तो ये है कि प्रकृति यहां उतनी ही और वैसी ही हो रही है जितनी जगह हम इंसान शेष रहने दे रहे हैं, हमें रहना है...लेकिन ऐसे दमघोंटू माहौल में रहकर कितना जी पाएंगे...कम से कम बच्चों की सोची ही जा सकती है...।
15 Comments
कंक्रीट के जंगल में झरोखों का महत्व गौण समझा गया है। आज झरोखों पर आपका दूसरा लेख पढ़ रही हूँ। बहुत अच्छा लिखा आपने। प्रकृति को निहारने के लिए घर में ऐसी जगह होनी ही चाहिये।
ReplyDeleteरेणु जी बहुत आभार...।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 24 फरवरी 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteआभार आपका पम्मी जी..।
ReplyDeleteप्रकृति से दूर जाता हुआ मानव जैसे खुद से भी दूर होता जा रहा है
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteअत्याधुनिक मानव की यही कहानी ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteआपसे सहमत। आज की सच्चाई यही है। एक सुंदर और सार्थक पोस्ट के लिए आपको शुभकामनाएँ। सादर।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteपर्यावरण की सुरक्षा की चेतना जगाती सुंदर, सार्थक और अत्यंत सामयिक रचना।
ReplyDeleteजी बहुत आभार...
Deleteपर्यावरण की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला सार्थक लेख
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका...
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