सुनो चंद्रमा---हमारे यहां बहुत अंधेरा है. मैंने तो सुना है कि तुम्हारे हिस्से एक ही अमावस की रात आती है बाकी समय तो तुम निर्मल होकर निडर होकर अकेले इस स्याह रात में आसमानी जंगल में सफर करते हो, सुनों कभी डर नहीं लगता...कैसे कर लेते हो ये सफर तुम रोज अकेले ही तय, इन तारों या बादलों के बीच से कोई साजिश वाला आततायी तुम्हारे सामने कभी भी नहीं आता...। हम इंसानों की बस्ती की क्या कहें कभी-कभी तुम्हारे जीवन की निर्मलता और उजले हुए पक्ष को देखकर जलन होती है क्योंकि हमारे यहां ये सब कहां होता है...। हमारे यहां बहुत अंधेरा है...कहीं कुछ भी तो सुरक्षित नहीं है, तुम्हें केवल अमावस की रात के स्याह अंधकार को भोगना होता है लेकिन हमारी धरती पर तो हर रात अमावस जैसी ही है खासकर उन माता-पिता के लिए जिनकी बेटियां रात होने तक घर नहीं पहुंच पाती हैं, यकीन मानों वो चिंता का स्याह डर उन्हें हर पल मारता है और गहरे तक मारता है, जब तक उनकी बिटिया घर नहीं लौट आती वो मां जागती रहती है खटिया पर। कई करवट लेती हुई संभव है तुम्हें भी देख लेती हो और रात के अंधकार पर तुम्हारी कमतर होती दमक पर भी विचार करती है कि काश तुम्हारी रोशनी रात में और धरतीवासियों को एक सवेरा दे पाती। देख सको तो देखने का प्रयास करना हमारी धरती के महानगरों की भागती हुई जिंदगी के बीच कसमसाते रिश्तों की खींचतान में पापड़ की तरह पिसती हुई भावनाएं...। देख सको तब ही देखना क्योंकि मैं तुम्हारी दुनिया तक ये तंगहाली थोडे़ ही पहुंचाना चाहता हूं, बस यूं चर्चा निकली तो मन की कह दी। चंद्रमा तुम यकीनन सोच रहे होगे कि तुम्हारे चेहरे पर भी तो बादलों की काली बदली कई बार आकर तुम्हें सताती है मैं जानता हूं कि ये सच है लेकिन यकीन मानो तो सही वो बदली तुम्हारी दमक के आहरण को नहीं आती है, वो बदली बेचारी दो पल भी कहां ठहरती है उसे तो पानी का बोझ उठाए योजन सफर जो तय करना होता है। एक बात कहूं चंद्रमा हमारी धरती के बच्चे तुम्हें बहुत पसंद करते थे जब माताएं तुम्हारी परछाई पानी की थाल में दिखा दिया करती थीं, पता है हमने भी विकास किया है क्योंकि अब बच्चे तुम्हें खिलौना नहीं समझते वे तुम पर पहुंचने की जिद करते हैं...। ओह बातों ही बातों में पता ही नहीं चला कि सुबह होने को है और तुम्हारे चेहरे से वे अमावसी बादल भी छंट गए हैं अब चाहो तो आराम कर लो क्योंकि रात तो मुझसे बात करते हुए ही बिता दी है, अगले दिन सफर दिन के दूसरे पहर से ही आरंभ कर लेना क्योंकि सूर्य की तेज रोशनी में कुछ भी पता नहीं चलेगा...। मेरी बातों से उलझा और थका सा चांद कुछ बादलों की पीठ पर लेट गया और उसे ठंडी सी नींद कब आ गई पता ही नही चला।
4 Comments
क्या उद्बोधन है चाँद के नाम!! मन के संवाद की कोई सीमा नहीं होती ना कल्पनाओं के दायरे तय है🙏🙏
ReplyDeleteजी सच है, मन लाखों योजन सफर रोज करता है और हमारे लिए लाता है बेशकीमती विचार...। बहुत आभार रेणु जी।
Deleteचाँद से संवाद.. अमूल्य सफ़र जारी रहें।
ReplyDeleteसादर।
बहुत आभार पम्मी जी...।
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