समय तो लिखेगा कि इस दौर में कौन लापरवाह रहा, कौन ढोंगी, कौन कलुषित विचारों वाला, कौन खामोश रहा, कौन बाद में चीखा, कौन जिसने अपनों को खोया और फिर भी नहीं खोया आपा, कौन जिन्होंने सबकुछ खोकर भी जीवित रखा भरोसा, कौन चीख रहा था, कौन छाती पीट रहा था, कौन भाग रहा था अपनों से, कौन भाग रहा था जिम्मेदारियों से और कौन था जो इस दौर में जीवट बनकर आ डटा, कौन था जिसने दिखाया कि केवल अर्थ ही सबकुछ नहीं होता उस अर्थ के पीछे भी एक अर्थ होता है जीवन का और मानवीयता का, कौन इस दौर में राजनीति करता रहा, कौन इस दौर में मानवीयता दिखाकर परेशान मानव जाति का दर्द सहता रहा, कौन हारा और कौन जीता, कौन...कौन...कौन आखिर कौन...?
कैसा दौर है जब केवल कराह सुनाई दे रही है, नदियां पाप धोते धोते अब शवों को ढोने लगीं, कैसा दौर है कुछ इस दौर में भी लूट रहे हैं, कुछ इस दौर अपना खजाना खोलकर बैठे हैं। चीत्कार नहीं लिखना चाहता क्योंकि वह तो हरेक के मन में, शरीर के हर हिस्से में और इस मस्तिष्क में कहीं गहरे समा गई है। रोते लोग, चीखते लोग समय लिखेंगे, आप यकीन मानिये कि मौन बेकार नहीं जाएगा, ये पूरी ताकत से चीखेगा जिन्होंने अपनों को खोया है वह केवल शरीर होकर अपने आप में जब्त होकर रह गए हैं, उनकी आत्मा असंख्य सवालों से दबी हुई है, छटपटा रही है, सवालों की लंबी फेहरिस्त है, हरेक के पास। जवाब नहीं है, जवाब का ये है कि यदि वह समय से दिया जाए तब मन में गहरे जाकर बैठता है लेकिन जब जवाब समय के बीत जाने के बाद दिया जाता है तब वह अक्सर अनसुना कर दिया जाता है।
मैं यहां बात करना चाहता हूं राजनीति पर तो बहुत अच्छी छवि इस दौर में वह नहीं बना पाई है, मानवीयता कहती है कि जब जीवन पर संकट हो तब राजनीति को नीति में तब्दील होकर सोचना आरंभ कर देना चाहिए, किसी भी तरह की खींचातानी, आरोप प्रत्यारोप इस दौर में...? जो लगा रहे हैं उनसे सवाल है कि ये दौर संकट के समाधान को खोजने का है या दोयम दर्जे की राजनीति करने का है ? जिन्हें जिम्मेदारी दी गई है उन्हें नेतृत्व करना चाहिए और इस संकट में फंसे हरेक व्यक्ति के सवाल के जवाब देने चाहिए, उन्हें वह सब मुहैया करवाया जाना चाहिए जो अब तक नहीं मिला है, जीवन रहेगा तब राज भी रहेगा और उसका सुख भी लेकिन बिना जीवन कैसा राज और कैसा तंत्र। निवेदन है रोते और चीखते हुए तंत्र पर तो गिद्ध भी अपनी नजर गाढ़ने से पहले दो पल सोचता है, हम तो इंसान है उस ईश्वर की सबसे भरोसेमंद कृति। आप क्यों कर इस दौर में नीति से राज को अलग नहीं कर पा रहे हैं...शर्म कीजिए कहीं ये दौर आपके चेहरों पर नाकामी की ऐसी स्याह कालिख न पोत दे जिसे आप चाहकर भी कभी धो ना पाएं...मत कीजिए...सुनिये चीखें और उनके मर्म को...ये दौर वह है जब सभी की निगाहें आपकी ओर हैं...दिखाईये कि आपको चुनकर देश ने गलती नहीं की है...या ओढ लीजिए खामोशी कि उसके बाद कोई सवाल नहीं होंगे, केवल घूरती आंखें होंगी आपकी ओर।
मैं यहां बात मीडिया की भी करना चाहता हूं आज मीडिया मुखर है, चीख रहा है और उस चीख में दर्द भी है और चीखने वालों की आवाज भी, मैं यहां पूरी मीडिया पर बात नही कर रहा हूं लेकिन मीडिया के एक धडे़ पर बीते समय में ये आरोप खूब लगे हैं कि वह खामोश हो गया, मुझे भी लगता है कि कहने और कहने में बहुत अंतर होता है, एक बात कई तरह से कही जा सकती है, महत्वपूर्ण बात ये है कि आपकी जुबान उसे किस लहेजे में बोली या अपकी कलम उसे कितने गहरे तक टटोल पाई लेकिन जब आपकी जुबान पर सवाल होने थे, तब आपकी जुबान पर खामोशी कुछ अधिक दे ही ठहर गई या शब्द भी आए कि जिम्मेदारों को ये अहसास ही नहीं हो पाया कि वे दोषी हैं और उन्हें क्या करना चाहिए कैसे आप उस दौर को लौटा पाएंगे, कैसे उस खामोशी को आप बिसरा पाएंगे, कैसे उस दौर की खामोशी को महसूस कर चुके लोगों और जिन्होंने सबकुछ खो दिया और वे आपकी इस खामोशी पर आपको देखना, सुनना, पढ़ना छोड़ चुके हैं उस सच को कब तक झुठला पाओगे। मैं लिखूं या न लिखूं, कोई कहे या नहीं कहे, कोई आपकी खामोशी को खामोशी कहे या उसे कुछ और कह दे लेकिन ये समय तो देख रहा है, ये समय तो लिखेगा एक दिन और जब ये लिखेगा तब आपकी खामोशी भी गहरे अक्षरों में रेखांकित की जाएगी। मीडिया पर इतने गहरे आरोप इसी दौर में लगे हैं, मैं यहां किसी का भी नाम कोड नहीं करना चाहता क्योंकि ये तो अंर्तआत्मा की आवाज है जो एक बार सुनाई अवश्य देती है। यहां एक बात बहुत स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मीडिया में से कुछ थे जो लगातार चीख रहे थे उस सच को जो पूरी ताकत से उस दौर में चीखा जाना चाहिए था। समय गवाह है कि मीडिया पर यदि ऐसे आरोप समाज के बीच से लगते हैं तब ये शर्मनाक है और क्यांकि मीडिया ही वह प्रमुख केंद्रबिंदु है जो इस सिस्टम को पटरी से उतरते देखता है तो उसे दोबारा पटरी पर ला सकता है, बहुत ताकत है मीडिया में, राहत की बात ये है कि देरी से ही सही लेकिन अब मीडिया महसूस हो रही है इस दौर में।
हमेशा लांछन सहने वाला सोशल मीडिया इस दौर में बेहद गंभीर और जिम्मेदार साबित हुआ है, सोशल मीडिया पर कम्यूनिटी हेल्प का एक पेज बनाया गया जिसमें लोग एक दूसरे की मदद करते रहे, एक दूसरे से मदद मांगते रहे। सोचियेगा कि सोशल मीडिया इस दौर में वरदान साबित हुआ है कि क्योंकि उसने अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझी और निभाई है।
एक और प्रमुख विषय है जिसे समय अवश्य लिखेगा और वह ये कि हम कहीं बहुत गहरे पिछड़ गए इस बात को समझने में कि हमें विकास चाहिए तो क्या हम जीवन का कोई बैकअप फोल्डर बना पाए हैं, हम ये समझने में कहीं चूक गए कि हम विकास के पथ पर बहुत आगे निकल गए लेकिन क्या सबकुछ उसी तरह बदल रहा है जैसे हम भाग रहे हैं, हम ये भी समझने में चूक गए कि हमें विकास को कौन सी शक्ल देनी चाहिए क्या वह मानवीयता का हनन कर रहा है या मानवीयता को अंगीकार कर रहा है, सोचियेगा कि ये दौर एक कठिन किताब की तरह है जिसके शब्द हमें ये सिखाकर रहे हैं कि भविष्य उजला तो कतई नहीं है क्योंकि जब दर्द बाजार को बाजार बना लिया जाए, जब आंसुओं पर कारोबार ठहाके लगाने लगे, जब शरीरों को बीमार कर उसमें सीमाओं का विस्तार और सुखों का संसार खोजा जाने लगे तब ये मान लिया जाना चाहिए कि हमें विकास से अधिक अपने आप को मजबूत करने की आवश्यकता है, सोचियेगा सवाल बहुत हैं और आप समझते भी हैं कि कब, कहां और कैसे अपने मौन को आवाज देनी है।
संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन
खबर साभार दैनिक भास्कर, पटना
10 Comments
विचारणीय लेख । ये दृश्य जब भी ज़ेहन में आएंगे मन छटपटा उठेगा ।
ReplyDeleteसच...मैंने देखा तब मेरी आंखें भर आई और मन खिन्न हो गया कि हमने कैसा समाज बना लिया है जिसे नदी की तो कतई समझ नहीं है।
ReplyDeleteसार्थक लेखन, कोरोना काल में दिल को दहलाने वाले अनेक दृश्य देखने को मिल रहे हैं, अब तो टीवी देखना ही बंद कर दिया है। विकास के नाम पर अंधाधुंध प्रकृति का दोहन हो रहा है। मानव मूल्यों का हनन अति शीघ्रता से हो रहा है।
ReplyDeleteआभार आपका अनीता जी।
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 14-05-2021) को
"आ चल के तुझे, मैं ले के चलूँ:"(चर्चा अंक-4065) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद
…
"मीना भारद्वाज"
जी बहुत आभार आपका मीना जी।
Deleteउत्कृष्ट लेख
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका मनोज जी।
ReplyDeleteविचारोत्तेजक लेख।
ReplyDeleteसच भयावह स्थिति है ,स्वार्थ वशीभूत करता नहीं हो रहा।
बहुत सटीक और सार्थक लेख ।
साधुवाद।
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDelete