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...सुनो, वो घर आवाज देते हैं

घर, हां घर...। ऐसे ही कोई उन्हें छोड़कर कैसे जा सकता है...बेसहारा! ओह वो घर...सुनो, वो घर आवाज देते हैं...हर राहगीर को रोककर उससे पता पूछते हैं कि आखिर उन्हें कहीं देखा क्या जो यूं ही अनायास चले गए। 

उत्तराखंड की त्रासदी है पलायन...। मुख्य हिस्सों से हटकर देखें तो ऐसे बहुत से गांव हैं जो पलायन का दर्द भोग रहे हैं...अब गांव कहां...अब तो केवल घर हैं जो खाली, अकेले, तन्हा, उदास, बेबस, उनींदे और बीमार से खांसते हुए, दर्द से कराहते हुए, अपनों का इंतजार करते हुए उन धुंधली आंखों को दिन में कई दफा मलते हुए...। राहगीरों को रोककर ये घर जो कभी आबाद थे, खुशियों से इठलाते नहीं थकते थे, उत्साह से दमकते और अक्सर मुंडेर पर बैठ खुशियों से चहकते परिवार का हिस्सा होते थे...अब केवल मौन से देखते रहते हैं...। उदासी इतनी गहरी है कि राहगीर भी उसे अधिक देर देख नहीं पाते और अपनी राह हो लेते हैं...रुंधे हुए गले से ये घर जब तक अपनी आपबीती सुनाने को तैयार होते हैं तब तक राहगीर चले जाते हैं...। कुछ जो ठहरते हैं, इनके मौन को सुनना चाहते हैं वे उनसे पूछते हैं यदि देखा हो कहीं, हमारे बच्चे तो उनसे कहियेगा घर आज भी है तुम्हें बहुत याद करता है, थक गया है, बीमार भी है लेकिन अब भी तुम आओगे तो दूर से पहचान लेगा,  ये भी कहना कि अपनों से भला कोई रुठकर इस कदर जाता है, मैं घर हूं चल नहीं सकता, तुम इंसान हो चल सकते हो तो यूं कैसे चले गए, तुम्हें क्या कभी याद नहीं आती, क्या कभी मेरा चेहरा तुम्हें सताता नहीं है। वो मिलें तो कहना अब भी इंतजार में है घर, दीवारें इंतजार में थक गई हैं वो जमीन पर बैठना चाहती हैं, कहना घर की जमीन बहुत दिन हुए गोबर से लीपी नहीं गई है, दीवारों पर, दरवाजों का रंग अब भी गहरा है बस तुम्हारे न आने से वो उदास है, बारिश तो होती है लेकिन अब सीलन कलेजे में गहरे उतर गई है, शरीर का अधिकांश हिस्सा थकने लगा है, तुम्हारी याद आती है, तुम्हारे बचपन को भूल भी कैसे सकता हूं...मैंने कई सारे दुख भी देखे लेकिन मैं तुम्हारे साथ मजबूती से खड़ा रहा, खुशियां आईं तो तुमसे अधिक मैं झूमा, लेकिन ये क्या कोई इस तरह बेजार, बेरहमी से छोड़कर कैसे जा सकता है...सुनों राहगीर ये मैं किसी एक घर की दास्तां नहीं कह रहा हूं, ये उत्तराखंड के हर उस गांव, उस कस्बे, घर और परिवार की सच्चाई है जिसे कोई सुनना और देखना नहीं चाहता...। घर यूं पीछे छूट गया हो और उसके रहने वाले कहीं दूर निकल गए हों...तब घर कैसे और किन हालातों में जीता है ये घर से बेहतर कोई नहीं जानता...। सुनों राहगीर यदि वो रुठे हुए परिवार मिलें तो कहना कि घर तुम्हें अब भी वहीं मिलेगा बस उम्र की थकान है, चेहरा भारी हो गया है, खिड़कियों से हवा नहीं आती, तुम्हारी याद ने उस पर बड़ा जाल डाल रखा है...ये भी कहना कि घर अब भी तुम्हारी राह देख रहा है, देखता रहेगा...जब तक थककर उसका शरीर निढाल न हो जाए....। राहगीर एक और बात कहनी है वो ये कि यदि कोई कर्मयोगी या ईमानदार व्यक्ति मिले जो मेरे इस दर्द को समझने लायक हो, उससे ये दर्द अवश्य कहना कि बहुत कसक होती है जब घर से घर के लोग यूं चले जाते हैं और घर बेबस, अकेला, उदास और तन्हा रह जाता है...आखिर में थककर वो बुजुर्ग सा घर बोला राहगीर जाओ सांझ ढलने को है ये पहाड़ी क्षेत्र है यहां अंधेरा जल्दी गहराता है...उससे पहले अपनी मंजिल पर पहुंच जाओ...और वो दोबारा टूटे दरवाजों से होकर स्याह अंधेरे को ओढ़कर सो जाता है...।

- ये उत्तराखंड के पलायन का दर्द है, लोग रोजगार के लिए पुश्तैनी गांव और घर छोड़कर शहर आ रहे हैं, कुछ तो घरों को हमेशा के लिए छोड़ चुके हैं...ये घरों का मर्म भी है और दर्द भी...उम्मीद करता हूं काश कोई नीति नियंता या जनप्रतिनिधि इसे समझे और उत्तराखंड से पलायन रोकने के लिए कोई प्रयास आरंभ हो सके। यदि वे लोग इस पोस्ट को पढ़ें जिनके घर हैं, लेकिन वे उन्हें अकेला छोड़ आएं तो वे उनकी सुध अवश्य लें...क्योंकि घर केवल घर नहीं होता वो यादों का दस्तावेज होता है, पुरखों का चेहरा होता है..। 

...घर न छूटे, अपना दर ना छूटे...ये पुरखों की जमीं है दोस्तों, इस पर कोई कहर ना टूटे...। 

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2 Comments

  1. संदीप जी, बहुत ही भावुक कर रहा है ये लेख भी। उत्तराखंड की पुण्य धरा की सुरम्य वादियों का मानव रहित हो जाना प्रगति का स्याह पक्ष है। गॉवों का यूँ वीरान हो जाना और बाट जोहते घरों की मौन पीड़ा कौन समझ पाता है??

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  2. बहुत आभार रेणु जी...। आपके कमेंट हौंसला देते हैं बेहतर करने का। मैं अभिभूत हूं आपके कमेंट से मिलने वाली ताकत से। आभार

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