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स्मृतियां बूढ़ी नहीं होती



सबकुछ अलग सा था बचपन में, पिता से जिद, मां से जिद, दोस्तों के कपड़ों के रंगों में भी जिद...। गज्जब था सबकुछ...। रंगों की समझ नहीं थी, पहनने का सहूर भी नहीं था नीली पेंट पर हरी बुशर्ट, हरी पेंट पर लाल बुशर्ट...। बस एक जिद अपना रंग सबसे अच्छा होना चाहिए...। मां के हाथ की गुजिया जब तक बनाते बनाते 10  नहीं खा लेते थे लगता ही नहीं था कि त्यौहार है। हर बार मां गुस्से में झारा उठाती लेकिन मारती कभी नहीं... बस मुस्कुराहट बिखेर देती...। तब बाइक कहां होती थी साईकिल का डंडा और उस पर टावेल लपेटकर बैठने का आनंद...। पिता से फटाकों कि जिद... सब चाहिए होता था...पहले चलाने की जल्दबाजी और बाद में आसमान के रंगों को देर रात तक टकटकी लगाकर देखना और उनमें से सपने बुनना...। आंखों में बसे हैं वो दिन...। स्मृतियां बूढ़ी नहीं होती, आंखें धुंधला जाती हैं, दीपावली हर साल आती है, अब बहुत कुछ बदल गया है...। पिता नहीं हैं, मां है तो बहुत बुजुर्ग है और गुजिया भी नहीं बनाती और डराने झारा भी नहीं उठाती, हां होले से मुस्कुराती अब भी है...। पहले पिता थे चिंता नहीं थी कहां से और कैसे खुश करते थे घर को...वो उनका जादू था क्योंकि मंहगाई तब भी थी लेकिन तब मन बड़े थे और लोग गहरे...। अब सोचता हूँ मैं पिता हूँ, बच्चों की जिद भी है लेकिन पिता का सा धैर्य नहीं है...। वो दीवाली खास थी, खूब परिचित आते थे पिता के, पिता भी जाते थे...। अजीब लोग थे पहले के वे बिना काम के भी एक दूसरे से मिला करते थे, अब समय बदल गया है अब काम से जाना होता है बिना काम किसी के पास टाइम नहीं है...। ओह वो दीवाली एक महीना महसूस होती थी और अभी कुछ दिन और घंटे...। वो बहन से गुजिया छीनकर खाना...और देर तक चिढ़ाना...। अब समय बदल गया...। सब कहां हंसते हैं...बहुत याद आती है वो बचपन की दीवाली...। 

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2 Comments

  1. सच जाने कहाँ खो जाता है बचपन
    फिर से जीने का मन करता है
    बार-बार
    कई बार

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  2. जी कविता जी बहुत आभार आपका।

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