
..अकसर सोचा करता हूं जब पिता थे तब समय क्यों नहीं था, वे आखिर क्यों कहते थे कि कुछ पल साथ बैठ जा, कुछ बात करनी है। क्यों कहते थे कि जब भी तू पास बैठता है तो मन को राहत मिलती है....? मैं जानता था कि पिता हमेशा तो साथ नहीं होते फिर भी मैं उन्हें और उनके नेह भरे अहसासों की जगह समय को तरजीह देता रहा....। मैं सोचता था कि अगली बार कुछ अधिक दिन का अवकाश साथ लाउंगा, तब उनके पास आराम से बैठूंगा,, उन्हें सुनूंगा, उनसे मन की कहूंगा....। मैं आता रहा, जाता रहा, समय भी मुझे पिता और उनके अहसासों से मिलने के पहले जिम्मेदारियों की थकी सी पोथी दिखाकर डराता रहा...और मैं उसी के पीछे चलता रहा....। अकसर दोस्तों से सुनता था कि पिता उस गहरी सी जिम्मेदारी का नाम है जो हमें अकसर तब समझ आती है जब वे नहीं होते...लेकिन मैं मानता था कि मेरे पिता के साथ वैसा नहीं होगा जैसा सबके पिता के साथ हुआ...वे तो अभी हैं और रहेंगे...मैं एक दिन उनके पास बैठूंगा अवश्य...। बस एक दिन यूं देर रात जब प्रेस से घर लौटा तो मोबाइल पर एक संदेश आया कि पिता बहुत अधिक बीमार हैं और तुम जल्दी आ जाओ....। वो मोबाइल हाथ से छूट गया, लगा जैसे जिंदगी छूट गई, सपने टूट गए, उम्मीदें का आकाश उधड गया,,,,अहसासों वाला मटका उनके समेत जमीन पर गिरा और सबकुछ बिखर गया....। मैं भागता रहा, सोचा अब कुछ आखिर के शब्द ही चुन लूं...। पहुंचा तो बाबूजी थे, शब्द भी थे लेकिन सबकुछ अस्पष्ट...। वे कुछ कह पाए, मैं होले से दो बार उनके पास पहुंचा और केवल इतना ही कहा बाबूजी....वे चैतन्य अवस्था में पहुंचे मुझे आंखें खोलकर देखा लेकिन अगले ही पल वो एक गहरा सा सन्नाटा देकर चले गए, सवालों की वो गहरी से गुत्थी मेरे साथ आज भी है, अकसर अकेलेपन में मैं अब भी उन्हें सुलझाने की, समझने की कोशिश करता हूं....लेकिन कोई उत्तर नहीं मिलता...। सोचता हूं क्या ले गए वे अपने साथ, क्या कहना चाहते थे, क्या थे उनके अहसास, उनका प्रेम और मैं एक बावरे सा समय के साथ भागता ही रहा....सोचता था कि वे हमेशा साथ रहेंगे लेकिन नहीं है....। उनके चले जाने के बाद पांच से छह साल तक मन का एक हिस्सा सख्त सा हो गया...रोते हुए...वे सपनों में नजर आते लेकिन तब समय उन्हें ठहरने नहीं देता, तब मैं इंतजार करता और वे समय के साथ चले जाते....। समय वही है और मैं भी वही...बस पिता नहीं हैं...। उनके जाने के बाद उनकी चीजें थीं, दीवार पर उनका कुर्ता टंगा था, दवाओं का डिब्बा, पलंग के पास लगा एक छोटा सा पंखा, वो पलंग....सबकुछ है बस पिता नहीं है...लेकिन ये सब उनके न होने का अहसास बार-बार करवाते हैं...। कितना अजीब है ये संसार...। दोस्तों केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि पिता का चले जाना एक गहरी सी रिक्तता है जिसे कोई नहीं भर सकता....। यदि वे ये कहते हैं साथ बैठ जाओ तो समय से कहना कि तू भी कुछ देर यहीं बैठकर सुस्ता ले...पिता की सुन लें तब चलेंगे....वरना पिता चले जाने के बाद समय का साथ भी बेमानी सा लगता है....। अब भी जब कभी अकेला सा महसूस करता हूं इस दुनिया में तो अकसर उनकी तस्वीर से बतिया लेता हूं, वे कुछ कहते नहीं लेकिन मुझे लगता है वे सुन लेते हैं...क्योंकि वे पिता हैं...।
2 Comments
मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteदिल को छू गई
मन जब कुछ बहुत बीता हुआ सोचने लगता है तब उसे बहुत अपना सा मिल जाता है अक्सर। बहुत आभार कविता जी।
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