मैंने काली नदी देखी है, अपने आप को ढोती हुई, बेमतलब, तन्हा। कोई उल्लास भी नहीं, कोई जिंदगी की उम्मीद भी नहीं। थकी और परास्त...। न कोई पक्षी ना ही कोई पेड़। वो निराशा ओढ़े बह रही थी, अपने से बतियाती। ऊपरी परत अमानवीयता के मैल से किसी फटेहाल और बीमार जिस्म की भांति हो गया था...। मैंने उसके किनारे खड़े होकर उसे दो बार नदी के नाम से पुकारा लेकिन वो वो शून्य सी बहती रही अपने ही शरीर में...। मैं सोच रहा था नदी हो जाना शायद नदी बने रहने से अधिक मुश्किल नहीं है...। वो काली नदी अपनी चेतना खो चुकी थी... शायद नदी रही नहीं इसलिए उसे नदी कहलाना भी पसंद नहीं है...। मैं उसके साथ कुछ दूर चला लेकिन वो गुस्सैल थी बात तक नहीं की...। मैं लौट आया उसकी उस काली दुनिया में छोड़ कर अपनी चमकदार दुनिया में...जहां कोई नदी बहती ही नहीं... क्योंकि यहां केवल जिद बहती है... कुछ पागलपन, बहुत सी शून्यता।
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