सच जीवन में हम कितना कुछ बुन लेते हैं अपने लिए...। सपनों को बुनना और गूंथना दोनों में अंतर है, लेकिन बुने हुए सपनों को बहुत समय रखे रहना और उसके रेशों पर उम्र की केवल धूल जमना भी तो सही नहीं है। सपनों की बुनावट किस तरह से की गई है मायने कहाँ रखता है, अलबत्ता देखने में तो ये ही आ रहा है अरसे से कि बुने सपने मन के किसी कोने में धूल से पट जाते हैं, हमारे पास इतना समय ही.कहाँ होता है जो हम उन्हें झड़ककर थोड़ा उम्मीद की धूप दिखा दें...। उम्रदराज़ होकर उन सपनों को देखने और छूने के भी क्या मायने..? सच वे पसीज जाते हैं उनमें एक अजीब सी गंध आती है वो सौंधी वाली नहीं... कुछ और...। हां समय की बात तो न ही करें...वो कहाँ थमता है वो तो चक्र है घूमता रहता है। सपने यदि बुने जाएं तो उन्हें उस व्यस्तता की धूल से बचाना भी अनिवार्य है और उम्मीद की धूप भी जरूरी है...। देखिए ना सपनों का क्या... वे एक रात के मेहमान होते हैं... हां हम जिन्हें बुनते हैं वे ताउम्र हमारे मन के किसी कोने में वाट जोहते हैं...। बुने सपनों को हम ही उम्र बक्शते हैं और हम ही बेज़ार बना देते हैं, हां ये भीसच है उम्र की रफ्तार में बहुत धूल भी उड़ती है और कोहरा भी आता है... फिर भी बचाना चाहिए क्योंकि वे हमारे भावों का शिखर होते हैं...।
2 Comments
सुंदर चिंतन भरा आलेख संदीप जी. आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा. ब्लॉग जगत में आपका हार्दिक अभिनंदन है. ब्लॉग के माध्यम से आप यश का शिखर छुयें यही कामना है. हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐🙏💐💐
ReplyDeleteजी...आपको लेखन अच्छा लगा...बहुत आभार..। ये नेह बनाएं रखें..।
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